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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...23 आक्रोश, कटुवचन, देव-गुरू की निंदा, परपरिवाद आदि का त्याग करना 12. दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा रात्रि में परस्त्री/परपुरूष का त्याग करना 13. धन-धान्यादि नौ प्रकार के परिग्रह का परिमाण करना 14. वर्षा ऋतु में यथाशक्ति गमनागमन की प्रवृत्ति नहीं करना 15. तुच्छफल, सचित्तफल, अनन्तकाय आदि का भक्षण नहीं करना 16. प्रतिदिन खाद्य द्रव्यों का नियमन करना 17. सामायिक, पौषध, अतिथि संविभाग आदि शिक्षाव्रतों का पालन करना 18. प्रतिदिन चौदह नियमों में निर्धारित द्रव्यों की संख्या को सीमित करना 19. अष्टमी और चतुर्दशी एवं तीर्थंकर की कल्याणक तिथियों में उपवास आदि विशेष तप करना 20. धर्माराधना में सदैव उद्यमवन्त और उत्साहित रहना 21. औषध आदि का दान करना 22. साधर्मिक वात्सल्य करना 23. पानी आदि का छान कर उपयोग करना 24. आरम्भ-समारम्भ के कार्य कम से कम कार्य करना 25. गुरू आदि की भक्ति निमित्त निर्दोष आहार की व्यवस्था रखना 26. यथासम्भव अतिथिसंविभागव्रत का पालन करना आदि। बृहद् कर्त्तव्य __ श्राद्धविधिप्रकरण के अनुसार गृहस्थ को अपने जीवन काल में निम्न कृत्यों का पालन एक बार अवश्य करना चाहिए49
1. जिनमन्दिर का निर्माण एवं जीर्णोद्धार करवाना 2. जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित करवाना 3. उपाश्रय बनवाना 4. छ:री पालित संघ निकालना अर्थात पैदल तीर्थ यात्रा करवाना 5. आचार्य आदि पदवी का महोत्सव करना 6. आगम शास्त्र लिखवाना। पर्युषण सम्बन्धी कर्त्तव्य
कल्पसूत्र की टीका में गृहस्थ साधक के लिए पर्युषण में करने योग्य निम्न कर्त्तव्य बतलाये गये हैं 50
1. अमारी प्रवर्तन(अहिंसा पालन) करना एवं करवाना 2. छट्ठ(लगातार दो उपवास) एवं अट्ठम (लगातार तीन उपवास) तप करना 3. सुपात्र दान देना 4. नारियल आदि की प्रभावना करना 5. जिन पूजा एवं चैत्यपरिपाटी करना 6. सर्व साधुओं को वंदन करना 7. श्रीसंघ की भक्ति करना 8. ब्रह्मचर्य पालन करना 9. आरम्भ का त्याग करना 10. सत्कार्यों में द्रव्य का व्यय करना 11. श्रुतज्ञान की भक्ति करना 12. जीवों को अभयदान देना 13. उभयकाल