SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...17 प्रकृति के सर्वथा विरूद्ध कहा गया है। सभी धर्मों में इसका सेवन त्याज्य माना गया है। विपाकसूत्र में मांसाहार करने वालों के जीवन में आने वाले कष्टों का हृदय-विदारक चित्रण किया गया है।35 आचार्य मनु ने कहा है-जीवों के बिना मांस उपलब्ध नहीं होता और जीवों का वध कभी स्वर्ग प्रदान नहीं करता, अत: मांसभक्षण का त्याग करना चाहिए।36 कुछ सज्जन यह कुतर्क देते हैं कि हम स्वयं पशुओं को नहीं मारते हैं, किन्तु बाजार से खरीद कर खाते हैं, अत: हमें पाप नहीं लगता। आचार्य मन कहते हैं-जो मांसाहार का अनुमोदन करता है, मांस खरीदता है, बेचता है, पकाता है, खिलाता है-वे सभी घातक हैं।37 इस कथन को जैनदर्शन भी मानता है। कुछ लोग यह समझते हैं कि मांस खाने से शरीर ताकतवर बनता है, शक्ति बढ़ती है, किन्तु वे भ्रम में हैं। इस दुनियाँ में अनेकों उदाहरण ऐसे हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि शाकाहारी से बढ़कर कोई विजेता हो नहीं सकता है। हानि- मांसाहार में कैल्शियम और कार्बोहाइड्रेट्स नहीं होते, इसलिए मांस खाने वाले चिड़चिड़े, क्रोधी, निराशावादी और असहिष्णु होते हैं। मांस का सेवन करने से मानव स्नाय इतने अधिक कमजोर हो जाते हैं कि वह जीवन से निराश होकर आत्महत्या करने को भी उतारू हो जाता है। सामाजिक, नैतिक, धार्मिक एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से भी मांसाहार हानिप्रद है। आर्थिक दृष्टि से भी यह अनुपयुक्त है। यह तामसिक आहार है। इससे जीवन में अनेक विकृतियाँ पैदा होती हैं अत: मांसाहार का. त्याग करना प्रथम भूमिका है। 3. मद्यपान- साधक वर्ग के लिए मद्यपान वर्जित माना गया है। यह सड़े हुए पदार्थों का मिश्रण है। शर्करायुक्त पदार्थ जैसे-अंगूर, महुआ, जौ, गेहूँ, मक्का, गुड़, आदि वस्तुओं को सड़ाकर इसका निर्माण किया जाता है। मदिरा का सत्त्व ‘एल्कोहल' तथा सड़ा हुआ पदार्थ 'वाइन' कहलाता है। इसे भट्टी में उबालने पर 'स्पिरिट' की तरह तेज मदिरा बनती है। मदिरा को ही शराब कहते हैं। मदिरा एक प्रकार का नशा है। यह तन, धन एवं जीवन तीनों को बर्बाद करता है। किसी ने कहा है-मदिरा का प्रथम चूंट मानव को मूर्ख बनाता है, दूसरा घंट पागल बनाता है, तीसरे चूंट से वह दानव की तरह कार्य करने लगता है और चौथे चूंट से मुर्दे की तरह भूमि पर लुढ़क पड़ता है। हानि- आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जिस प्रकार अग्नि की एक चिनगारी से घास का ढेर राख में परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार मदिरापान से विवेक,
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy