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16... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
को चूस लेता है। जिसको यह लत लग जाती है वह मृग-मरीचिका की तरह धन प्राप्ति की अभिलाषा से अधिकाधिक धन बाजी पर लगाता चला जाता है और जब धन नष्ट हो जाता है, तब उसके जीवन में चिन्ता का सागर उमड़ पड़ता है, जो मरणपर्यन्त उसकी स्थिति को पतनोन्मुख बनाए रखता है। भारत के सभी ऋषि-महर्षियों ने जुए की निन्दा की है। ऋग्वेद में भी द्यूतक्रीडा को त्याज्य माना है।33 जुआ एक प्रकार की खुजली है, उसे जितना खुजलाया जाए, वह उतनी ही बढ़ती है। यह एक छुआछूत की बीमारी है, जो दूसरों को भी लग जाती है।
जैन ग्रन्थों में चौपड़ या शतरंज के रूप में जुआ खेलने का निषेध किया है, क्योंकि हारा हुआ जुआरी दुगुना खेलता है।34
प्राचीनकाल में चौपड़, पासा अथवा शतरंज के रूप में जुआ खेला जाता था। महाभारत काल में चौपड़ का अधिक प्रचलन था, तो मुगलकाल में शतरंज का। अंग्रेजी शासनकाल में ताश के रूप में और उसके बाद सट्टा, फीचर, लाटरी, मटका आदि विविध रूपों में जुए का प्रचलन प्रारंभ हुआ। रेस आदि का व्यसन भी जुआ ही है। एच.डब्ल्यू.बीचर का अभिमत है कि जुआ चाहे ताश के पत्तों के रूप में खेला जाता हो या घुड़दौड़ के रूप में, इन सब में बिना परिश्रम किए धन प्राप्त करने की इच्छा रहती है। जो धन बिना श्रम के प्राप्त होता है, वह बरसाती नदी की तरह आता है और वह नदी के मूल पानी को भी ले जाता है।
हानि- जुआरी का चित्त सदैव अशान्त रहता है। यदि धन प्राप्त हो गया तो वह दुगुना जुआ खेलता है और नहीं हुआ तो प्राप्त करने के लिए चिंतित रहता है। जुआरी की केवल जेब ही खाली नहीं होती, उसकी बुद्धि भी खाली हो जाती है। यह एक ऐसा असाध्य रोग है, जो पुनः-पुन: आक्रमण करता है। जुआ एक ऐसी आवेशात्मक आँधी है, जिसमें कुछ भी नहीं सूझता है। जुआरी अन्य व्यसनों को भी अपना लेता है, झूठी कसमें खाता है, झूठे वायदे करता है, चोरी करता है, दिमाग को शान्त करने के लिए मद्यपान करता है, परस्त्रीगमन और वेश्यागमन भी कर लेता है। इन सब दुर्गुणों के कारण नहीं वह स्वयं ही अपितु पारिवारिक जीवन भी संकट में पड़ जाता है अत: जैन गृहस्थ के लिए यह वर्जनीय है।
2. मांसाहार- मृतमानव या पशु-पक्षी का भक्षण करना मांसाहार कहलाता है। यह जुए की भाँति एक प्रकार का व्यसन है। मांसाहार को मानव