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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ... 15
किया है। यहाँ ध्यातव्य है कि तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दजी ने भी उनका कोई उल्लेख नहीं किया है, परन्तु यह निश्चित है कि आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रणीत अष्ट मूलगुणों को किंचित् मतान्तर के साथ उत्तरवर्ती प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकारा है।
यदि स्थूल दृष्टि से देखा जाए तो श्वेताम्बर के पाँच मूलगुणों एवं दिगम्बर अष्ट मूलगुणों में मात्र विवक्षा का ही भेद है, क्योंकि मूलरूप से तो पाँच पापों का त्याग ही है और मद्य, मांस एवं मधु महाविगय है । अतएव प्रत्येक श्रावक के लिए इनका त्याग अनिवार्य है। इसी के साथ पंच उदुम्बर फलों एवं मद्य, मांस, मधु का त्याग अणुव्रत - साधना की पूर्व तैयारी के रूप में भी माना जा सकता है।
सप्तव्यसन त्याग
संस्कृत में व्यसन शब्द का तात्पर्य है - कष्ट । जिन प्रवृत्तियों का परिणाम एक बुरी आदत का निर्माण करता हो, उन प्रवृत्तियों को व्यसन कहा जाता है । व्यसन एक ऐसी आदत है, जिसके बिना व्यक्ति रह नहीं सकता। एक यशस्वी कवि ने कहा है 30
व्यसनस्य मृत्योश्च, व्यसनं कष्टमुच्यते । व्यसन्यधोऽधो व्रजति, स्वर्यात्य व्यसनी मतः ।।
मृत्यु और व्यसन- इन दोनों में व्यसन अधिक कष्टप्रद है, क्योंकि मृत्यु एक बार कष्ट देती है, परन्तु व्यसन व्यक्ति को आजीवन कष्ट देता है। यद्यपि व्यसनों की संख्या अनगिनत है, फिर भी वैदिक परम्परा में व्यसनों की संख्या अठारह बताई है। इनमें दस व्यसन कामज है और आठ व्यसन क्रोधज हैं। कामज व्यसन निम्नलिखित हैं 31 - 1. मृगया (शिकार) 2. अक्ष (जुआ) 3. दिन में शयन 4. परनिन्दा 5. परस्त्रीसेवन 6. मद 7. नृत्यसभा 8. गीतसभा 9. वाद्यश्रवण और 10. निरर्थक भ्रमण |
क्रोधज व्यसन निम्न हैं- 1. चुगली करना 2. अति साहस करना 3. द्रोह करना 4. ईर्ष्या 5. असूया 6. अर्थ दोष 7. वाणी से दण्ड 8. कठोर वचन । जैन परम्परा में मुख्य रूप से सात प्रकार के व्यसन माने गए हैं32– 1. द्यूतक्रीड़ा (जुआ) 2. मांसाहार 3. मद्यपान 4. वेश्यागमन 5. परस्त्रीगमन 6. शिकार और 7. चौर्य कर्म ।
1. जुआ- जुआ एक ऐसा आकर्षण है, जो भूत की तरह मानव के सत्त्व