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14... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
वेश्यागमन को छोड़ने के लिए नियम निर्धारित किए हैं। इनमें प्रथम के तीन दोषों के साथ-साथ अन्तिम दो दोषों का अधिक सेवन होने के कारण आचार्य रविषेण को इन्हें मूलगुणों के अन्तर्गत मानना पड़ा होगा। जटासिंहनन्दि ने कुन्दकुन्द का अनुगमन किया है। 21 स्वामीकार्तिकेय ने स्वतन्त्र रूप से तो मूलगुणों का उल्लेख नहीं किया है, परन्तु दर्शन प्रतिमा में उन्हें सम्मिलित कर दिया है। 22
अमृतचन्द्र,
आचार्य जिनसेन (8वीं-9वीं शती) ने रविषेण का अनुकरण किया है केवल रात्रिभोजन त्याग के स्थान पर 'परस्त्रीत्याग' का निर्धारण किया गया है। आचार्य सोमदेव23, देवसेन 24, पद्मनन्दी 25, अमितगति 26, आशाधर 27, आदि आचार्यों ने लगभग समन्तभद्र का अनुकरण किया है। पं. आशाधर ने जलगालन को भी अष्टमूलगुणों में माना है। 28 आचार्य सोमदेव, आदि ने पंच अणुव्रतों के स्थान पर पाँच औदुम्बर फल - 1. पीपल फल 2. गूलर फल 3. वट फल 4. पिलंखन फल और 5. अंजीर फल के त्याग का विधान कर नियमों की कठोरता को कम किया है। वसुनन्दिश्रावकाचार में सप्तव्यसनों के त्याग का विधान है। आज सप्तव्यसन त्याग को ही सामान्यतया स्वीकारा जाता है। इस सम्बन्ध में जैन धर्म की लगभग सभी परम्पराएँ एकमत हैं तथा सभी ने गृहस्थ की भूमिका में प्रवेश करने के पूर्व सप्त व्यसनों के त्याग को अनिवार्य माना है।
निष्पत्ति- यदि दिगम्बर परम्परा मान्य अष्टमूलगुणों के परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक एवं समीक्षात्मक पहलू से विचार करें तो पाते हैं कि जैनागमों में अष्टमूलगुण के नाम से कहीं भी चर्चा नहीं है । यह उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्रकृत (चौथी - शती) रत्नकरण्डक श्रावकाचार में उपलब्ध होता है। इसके पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द ने इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की है। 29 उन्होंने श्वेताम्बर मान्य पाँच मूलगुण एवं सात उत्तरगुण के रूप में बारहव्रतों के नाम गिनाए हैं। यह संभव है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने मद्य, मांस और मधु के सेवन का निषेध अहिंसा के अन्तर्गत किया हो अथवा यह भी हो सकता है कि उनके समय में मद्य, मांस, मधु के सेवन की प्रवृत्ति अधिक न रही हो । आचार्य समन्तभद्र के आते-आते यह प्रवृत्ति कुछ अधिक बढ़ गई होगी, इसलिए उसे रोकने की दृष्टि से उन्होंने मूलगुणों की कल्पना कर उनके परिपालन का विधान