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________________ जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...13 गृहस्थ धर्म की प्राथमिक योग्यता जैनाचार्यों के निर्देशानुसार सामान्य व्यक्ति को गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश करने से पूर्व कुछ आवश्यक योग्यताओं से समन्वित होना चाहिए। सुयोग्य गृहस्थ ही सम्यक्त्वव्रत, बारहव्रत, सामायिकव्रत आदि अंगीकार कर सकता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने जैन गृहस्थ (श्रावक) में पैंतीस गुणों का होना आवश्यक माना है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी नामान्तर से इन्हीं गुणों का समर्थन किया है। प्रस्तुत विवरण उनके धर्मबिन्दूप्रकरण एवं योगशास्त्र में विस्तार के साथ उल्लिखित है। परवर्ती आचार्यों ने श्रावक की इन योग्यताओं को 'मार्गानुसारी गुण' इस नाम से अभिहित किया है। आचार्य नेमिचन्द्र एवं पं. आशाधर आदि ने भी गृहस्थ के लिए अपेक्षित योग्यताएँ स्वीकार की है। ' इस विषयक विस्तृत चर्चा अग्रिम अध्याय में करेंगे। गृहस्थ धर्म की साधना के प्राथमिक नियम जैन धर्म एक मानवतावादी धर्म है। वह साध्य और साधन दोनों की पवित्रता में विश्वास करता है। जैन धर्म में प्रवेश करने के लिए मात्र वीतराग (साध्य) देव के प्रति श्रद्धा, निष्ठा या आस्था को अभिव्यक्त करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु कुछ आचार-नियमों का पालन करना भी आवश्यक है। जैन धर्म में प्रवेश करने वाले अनुयायियों के लिए जिन नियमों का पालन करना अनिवार्य है, उन्हें अष्टमूलगुण कहा गया है। जैन विचारणा में अष्टमूलगुण को लेकर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर- परम्परा में थोड़ा मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा में पाँच अणुव्रत का स्थान मूलगुण में है और शेष सात व्रत उत्तरगुण के रूप में हैं। दिगम्बर परम्परा में श्रावकों के मूलगुण आठ माने गए हैं। ___आचार्य समन्तभद्र (चौथी शती) ने पाँच अणुव्रतों के परिपालन एवं मद्य, मांस और मधु के परित्याग को अष्ट मूलगुण कहा है।17 आचार्य अमृतचन्द्र (10वीं-11वीं शती) ने पंच उदुम्बर फलों एवं मद्य, मांस और मधु के त्याग करने को अष्टमूलगुण माना है।18 किसी आचार्य के अनुसार मद्य, मांस, मधु, रात्रिभोजन, पंच उदुम्बर फलों का त्याग, देववन्दना, जीवदया करना और पानी छानकर पीना-ये मूलगुण माने गए हैं।19 आचार्य रविषेण (8वीं शती) ने आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य समन्तभद्र दोनों का समन्वय किया है।20 उन्होंने मधु, मद्य, मांस, जुआ, रात्रिभोजन और
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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