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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...11 है, कदाच हो जाए तो प्रायश्चित्त ग्रहणकर आत्मशुद्धि करता है, वह चर्या श्रावक कहलाता है। इस चर्या का पालन दर्शन प्रतिमा से लेकर अनुमतिविरतप्रतिमा पर्यन्त किया जाता है।
निष्पत्ति- पाक्षिक श्रावक की कोटि तक पहुँचना आत्मिक उन्नति का प्रथम कदम है, नैष्ठिक श्रावक की भूमिका तक पहुँचना आध्यात्मिक प्रगति का द्वितीय चरण है और साधक श्रावक की श्रेणी को प्राप्त करना अध्यात्ममार्ग का अन्तिम सोपान है।
उक्त तीनों भेद दिगम्बर परम्परा के अनुसार किए गए हैं। श्वेताम्बर ग्रन्थों में इस प्रकार के भेद सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं है, किन्तु इतना कहा जा सकता है कि पूर्वनिर्दिष्ट अविरत श्रावक और देशविरत श्रावक से ये भिन्न नहीं हैं। परमार्थत: पाक्षिक श्रावक अविरत श्रावक का और नैष्ठिक श्रावक देशविरत श्रावक का ही दूसरा नाम है। गृहस्थश्रावक के अन्य प्रकार
नाम आदि निक्षेप की अपेक्षा श्रावक के चार प्रकार निम्न हैं 14___ 1. नाम श्रावक- जिसका नाम श्रावक रखा हो, वह उस योग्य न होने पर भी नाम श्रावक कहलाता है।
2. स्थापना श्रावक- पुस्तक, पत्रिका, चित्र, तस्वीर आदि में अंकित श्रावक की फोटू स्थापना श्रावक है।
3. द्रव्य श्रावक- देव-गुरू-धर्म पर श्रद्धा नहीं रखने वाला और आजीविकार्थ श्रावक नाम को धारण करने वाला द्रव्य श्रावक कहलाता है अथवा भावरहित द्रव्य अनुष्ठान करने वाला भी द्रव्य श्रावक कहा जाता है।
4. भाव श्रावक- श्रद्धापूर्वक जिनाज्ञा का पालन करने वाला भावश्रावक है।
स्थानांगसूत्र में वर्णित श्रमणोपासक के चार प्रकार निम्नोक्त हैं15
1. माता-पिता के समान- जो गृहस्थ श्रमणों के प्रति अत्यन्त स्नेह, वात्सल्य और श्रद्धा रखते हैं उनकी तुलना माता-पिता से की गई है अत: उन्हें 'माता-पिता समान' श्रावक कहते हैं।
2. भाई के समान- जो गृहस्थ श्रमणों के प्रति यथावसर वात्सल्य और यथावसर उग्र भाव दोनों रखते हैं उनकी तुलना भाई से की गई है। वे तत्वविचार