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10... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... में श्रावक के निम्न दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं- 1. साभिग्रह-व्रतसम्पन्न और 2. निरभिग्रह-सम्यग्दर्शन सम्पन्न।12 इन्हें बारहव्रतधारी एवं सम्यक्त्वव्रतधारी श्रावक भी कहा जाता है।
फलित यह है कि जैनधर्म में साधना की प्रक्रिया हर व्यक्ति की अपनी मनोदशा, क्षमता एवं योग्यता के आधार पर ही विकसित होती है। किसी को बलपूर्वक या आग्रह विशेष से साधना-पथ पर आरूढ़ नहीं किया जाता है। यही वजह है कि गृहस्थ साधक एवं श्रमण साधक के अनेक प्रकार एवं भेद-प्रभेद हैं। गृहस्थ साधकों के भेद
पं. आशाधर रचित सागारधर्मामृत में गृहस्थव्रती के तीन भेद किए गए हैं1. पाक्षिक 2. नैष्ठिक और 3. साधक।13
1. पाक्षिक श्रावक- यह गृहस्थ साधक की प्रथम अवस्था है। इसमें वह धर्म के सर्वसाधारण स्वरूप की ओर झुकता है और आगे बढ़ने की पृष्ठ भूमि तैयार करता है। सामान्यतया जो व्यक्ति वीतराग को देव के रूप में, निर्ग्रन्थ मुनि को गुरू के रूप में और अहिंसा को धर्म के रूप में स्वीकार करता है, वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। ___ 2. नैष्ठिक श्रावक- जो गृहस्थ दुर्व्यसनों एवं औदुम्बर फलों के भक्षण का त्याग करते हैं, वे नैष्ठिक श्रावक कहे जाते हैं। इसके अतिरिक्त बारह व्रतों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करने वाले तथा षडावश्यक आदि क्रियाओं का पालन करने वाले गृहस्थ साधक भी इसी वर्ग में आते हैं। यह इस श्रेणी की सर्वोच्च सीमा है।
3. साधक श्रावक- गृहस्थ साधक की यह तृतीय अवस्था है। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उसका मन संसार से विरक्त हो जाता है तथा संसार से मुक्त होने के लिए संलेखना धारण करता है। सामान्यतया जो गृहस्थ बारह व्रतों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करते हुए जीवन के अंतिम भाग में संलेखनाव्रत को अंगीकार कर लेता है, वह साधक श्रावक कहा जाता है। कुछ दिगम्बराचार्यों ने गृहस्थ के पाक्षिक आदि चार भेद किए हैं। इनमें 'चर्याश्रावक' नाम का भेद अतिरिक्त है और उसे भेद गणना में दूसरे स्थान पर माना गया है। जो धर्म क्रिया के निमित्त, देवता की आराधना निमित्त, मंत्र की सिद्धि निमित्त, औषधि-सेवन या भोगोपभोग निमित्त किसी तरह की हिंसा नहीं करता