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अध्याय- 1 जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी
धर्माराधना विधि
जैन दर्शन का चरम लक्ष्य आत्मोपलब्धि एवं परम तत्त्व की संप्राप्ति है, जिसे श्रमण साधना का सर्वोत्कर्ष होने पर ही प्राप्त किया जा सकता है। इस श्रमण साधना का एवं उनकी चर्याविधि का जैनागमों में जितना अधिक गहन चिन्तन किया गया है, उतना सद्गृहस्थों एवं उपासकों के आचार-विचार का नहीं। यद्यपि यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि श्रमण भगवान महावीर ने पूर्वागत परम्परा का संपोषण करते हुए चतुर्विध संघ की स्थापना की और उसमें साधुसाध्वी और श्रावक-श्राविका को स्थान दिया। तीर्थ स्थापना करने के कारण ही वे तीर्थंकर कहलाए। इस प्रकार अर्हत्परम्परा में तीर्थ स्वरूप चतुर्विध संघ का समतुल्य स्थान है। इसमें अन्तर यही है कि साधु-साध्वी का स्थान रथ के आगे के पहिए के समान है और श्रावक-श्राविका पीछे के पहिए के समान हैं। यद्यपि श्रुत साहित्य में श्रमण के साधकीय जीवन का विस्तृत रूप से वर्णन है और यह उल्लेख साधना की सर्वोच्चता एवं कठोरता के आधार पर किया गया है। फिर भी जैसे धर्मीजनों के बिना कर्म की महत्ता सिद्ध नहीं होती, वैसे ही श्रावकश्राविकाओं के अभाव में श्रमणों के ध्यान-योग साधना की भी सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि श्रमण जीवन की चर्या पालन में श्रावक-श्राविका की अहम् भूमिका वैसे ही रहती है जैसे धर्माराधना के लिए शरीर का स्वस्थ होना परमावश्यक होता है। कहा भी गया है-'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्।।
श्रावक-श्राविकाओं का आचरण कैसा होना चाहिए? सद्गृहस्थों के सामान्य-विशेष कर्त्तव्य कौनसे हैं? तद्विषयक चर्चा तीर्थंकर परमात्मा के समवसरण में निश्चित रूप से हुई होगी। इसका यही प्रमाण है कि उपासकदशासूत्र के अतिरिक्त स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथासूत्र, अन्तकृत्दशासूत्र, विपाकसूत्र, राजप्रश्नीयसूत्र,