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________________ 2... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... उत्तराध्ययनसूत्र, दशाश्रुतस्कन्धसूत्र एवं आवश्यकसूत्र में गृहस्थों के लिए आचरणीय व्रतों एवं प्रतिमाओं आदि का प्रतिपादन किया गया है, जिन्हें अंगीकृत कर अनेकों भव्यात्माओं ने आत्म कल्याण किया। आगमिक व्याख्या साहित्य में भी सद्गृहस्थों के लिए आचरणीय एवं पालनीय विधि-नियमों का सुविस्तृत प्रतिपादन है। जैन गृहस्थ के आचारगत विधि-विधानों को लेकर श्वेताम्बर-दिगम्बर के जैनाचार्यों एवं विद्वत्वर्गों ने भी स्वतन्त्र रचनाओं का निर्माण कर जिनशासन को लाभान्वित किया है। श्रावक शब्द का अर्थ विचार ___ जैन परम्परा में गृहस्थ साधक को 'श्रावक'-इस नाम की संज्ञा दी गई है। श्रावक शब्द तीन वर्गों के संयोग से बना है। इन तीन वर्गों के क्रमश: तीन अर्थ हैं-1. श्रद्धालु 2. विवेकी और 3. क्रियावान्। जो गृहस्थ इन तीन गुणों से युक्त हो, वह श्रावक कहलाता है। एक अन्य द्रष्टि से 'श्रा' शब्द तत्त्वार्थ श्रद्वान् को व्यक्त करता है, 'व' शब्द धर्मक्षेत्र में धनरूप बीज बोने की प्रेरणा देता है और 'क' शब्द महापापों को दूर करने का संकेत करता है। श्रावक शब्द 'श्रु श्रवणे' धातु से बना है जिसका अर्थ होता है- श्रवण करना अथवा सुनना। जो श्रद्धापूर्वक जिन प्रवचन का श्रवण करता है और यथाशक्ति तद्प आचरण करने का प्रयास करता है, वह श्रावक है। श्रावक शब्द का तीसरा अर्थ- 'श्रा पाके' धातु के आधार पर किया जाए तो संस्कृत में 'श्रापक' रूप बनता है, पर श्रापक शब्द की अर्थसंगति श्रावक शब्द के साथ नहीं बैठती है। शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ है-जो भोजन पकाता है, पचन-पाचन आदि क्रियाओं को करते हुए धर्म साधना करता है, वह 'श्रापक' है। किसी आचार्य ने श्रावक शब्द के तीनों अक्षरों पर गहराई से विचार करते हुए 'श्रा' शब्द के दो अर्थ किए हैं- जिन प्रवचन पर दृढ़ श्रद्धा रखने वाला और श्रद्धापूर्वक जिनवाणी का श्रवण करने वाला। इससे यह ज्ञात होता है कि श्रावक को मनोरंजन की दृष्टि से या दोष दृष्टि से उत्प्रेरित होकर जिनवाणी का श्रवण नहीं करना चाहिए, अपितु श्रद्धा युक्त भावों से शास्त्र श्रवण करना चाहिए, तभी 'श्रावक' संज्ञा को सार्थक कर सकता है। श्रावक शब्द में दूसरा अक्षर 'व' है। इसके निम्न अर्थ किए हैं-सपात्र, अनुकम्पापात्र, सभी को बिना विलम्ब किए दान देने वाला, सत्कार्य का वपन करने वाला, धर्म, समाज एवं आत्महितकारी श्रेष्ठ कार्यों का वरण करने वाला।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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