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452... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
साधना पर आरूढ़ होता है, क्योंकि इसका अग्रिम चरण मुनि जीवन को स्वीकार करना ही बताया है। इस वर्णन से यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि प्रतिमा स्वीकार गृहस्थ जीवन की उच्चतम साधना का वरण करना है।
इस विधान की उपादेयता के सम्बन्ध में कहें तो यह तथ्य ज्ञात होता है कि अमुक प्रकार की प्रतिज्ञा विशेष द्वारा व्यक्ति का मनोबल परिपक्व बनता है। मनोबल की परिपक्वता से आत्मबल का विकास होता है तथा आत्मबल के विकसित होने पर स्वयं के भीतर सुप्त व आच्छादित अनन्त शक्तियाँ जाग्रत करने की योग्यता अर्जित कर लेता है और यथासाधना उस मार्ग में सफल भी हो जाता है, अर्थात् विशिष्ट प्रकार का क्षयोपशम उपलब्ध करता है, जो चरम लक्ष्य (मोक्ष) की प्राप्ति कराने में परम्परा से कारणभूत बनता है।
यह ध्यातव्य है कि उपासक प्रतिमाएँ एक के बाद एक क्रमश: धारण की जाती हैं तथा प्रत्येक प्रतिमा को धारण करने वाला व्यक्ति कम से कम एक, दो या तीन दिन और अधिक से अधिक एक महीना, दो महीना, यावत् ग्यारह महीना पर्यन्त उस- उस प्रतिमा का पालन करता है। उस ___अवधि के अन्तराल में वह कठोर साधना का अभ्यासी भी बन जाता है। इसके साथ ही साधना के परिणामस्वरूप प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रसन्न रहने, विषमता भरे वातावरण में तटस्थ रहने एवं विभिन्न प्रकार के नियमोपनियमों का निर्दोषत: पालन करने में सक्षम बन जाता है।
इसकी सर्वाधिक उपादेयता इस उद्देश्य को लेकर भी स्वीकारी जा सकती है कि यह एक क्रमिक-विकास की यात्रा का उपक्रम है। इसमें साधक व्रताचरण के ग्यारह सोपानों पर अनुक्रमश: आरूढ़ होता है। दूसरे इस साधना का अनुपालन यावज्जीवन के लिए भी किया जा सकता है और निर्धारित अवधि विशेष के लिए भी।
- समाहारत: यह आचार पक्ष को सुसंस्कारित करने वाली आध्यात्मिक साधना है। श्वेताम्बर-परम्परा इसके अस्तित्व को तो सर्वांग रूपेण स्वीकार करती है, किन्तु इस विषमकाल में प्रतिमाओं को ग्रहण करने की परिपाटी लगभग समाप्त हो चुकी है जबकि दिगम्बर परम्परा में आज भी प्रतिमाधारी वर्ग की बहुतायत है।