________________
उपासकप्रतिमाराधना विधि का शास्त्रीय विश्लेषण... 451
प्रतिमा ग्रहण विधि के अन्तर्गत देखा जा सकता है।
उक्त दोनों ग्रन्थों में दंडक (पाठ) को लेकर मुख्य भिन्नता यह है कि तिलकाचार्य ने प्रतिमाग्राही श्रावक के लिए अन्नत्थणाभोग आदि चार आगार रखे जाने का निर्देश किया है, जबकि वर्धमानसूरि ने इसका निषेध किया है। वस्तुतः प्रतिमा एक उत्सर्गमार्ग रूप है। यदि उसमें आगार (छूट) आदि रखे जाएं तो यह साधना अपवाद मार्ग रूप हो जायेगी । यहाँ निष्पक्ष दृष्टि से आचारदिनकर का अभिमत ही सर्वथा उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त नन्दी, देववन्दन, वासदान, प्रदक्षिणा आदि का उल्लेख दोनों में समान प्राय: है । दूसरी समानता यह है कि दोनों ही ग्रन्थों में आदि की चार प्रतिमाओं के दंडक ही दिए गए हैं और कहा गया है कि अधुना कालविपर्यास एवं संहनन - शैथिल्य के कारण श्रावक द्वारा प्रारम्भ की चार प्रतिमाएँ ही ग्रहण की जाती है, शेष प्रतिमाओं के नियम कठोर होने से उन्हें धारण करना गृहस्थ साधक के लिए असंभव है। 88
यदि हम जैन, वैदिक एवं बौद्ध इन तीनों परम्परा के सन्दर्भ में विचार करें, तो इस विधि की अवधारणा जैन-धर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर- दोनों परम्पराओं में दिखाई देती है, परन्तु वैदिक एवं बौद्ध परम्परा में इस तरह का कोई विधान परिलक्षित नहीं होता है।
उपसंहार
जैन- दृष्टिकोण के अनुसार विशिष्ट प्रकार की प्रतिज्ञा स्वीकार करना या व्रतविशेष का दृढ़संकल्प करना 'प्रतिज्ञा' कहलाता है। जिस प्रकार व्यक्तिविशेष की आकृति के रूप में निर्मित पत्थर की प्रतिमा अडोल और अकम्प रहती है, उसी प्रकार व्रतविशेष को धारण करने वाला साधक स्वगृहीत प्रतिज्ञा में अडिग रहता है। यदि किसी प्रकार की प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हो जाए, तो भी वह यत्किंचित् भी विचलित नहीं होता है, इसीलिए दृढ़ प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहा गया है तथा वह प्रतिज्ञा जिस व्यक्ति द्वारा स्वीकार की जाती है, वह प्रतिमाधारी कहलाता है।
जैन-धर्म में प्रतिमाधारी श्रावक को गृहस्थ साधकों की श्रेणी में सर्वोत्तम माना गया है। गृहस्थ साधकों की अपेक्षा तुलना करें, तो ग्यारहवीं श्रमणभूतप्रतिमा की उपासना करने वाला श्रावक गृहस्थधर्म की सर्वोत्कृष्ट