________________
442... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... अर्थ करें कि जो प्रतिज्ञा विशुद्धतापूर्वक, अतिचाररहित एवं आगाररहित पालन की जाती है, वह प्रतिमा है। इस दृष्टि से आज भी प्रतिमाओं का ग्रहण करना असंभव नहीं है। विशेष तो ज्ञानीगम्य है। प्रतिमा वहन के योग्य कौन?
उपासक-प्रतिमा धारण करने का अधिकारी कौन हो सकता है? इसको वहन करने का प्रमाण-पत्र किसे दिया जा सकता है? प्रतिमा वहन करते समय किन-किन नियमों का पालन करना आवश्यक है? हमें इस विषय में न तो आगमिक आधार प्राप्त हो पाया है और न ही किसी प्रकार की विशिष्ट जानकारी उपलब्ध हुई है, किन्तु अर्वाचीन ग्रन्थों एवं स्वचिन्तन के आधार पर जो कुछ समझ में आया वह विवरण इस प्रकार है
आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी ने लिखा है कि प्रतिमा धारण करने का अधिकारी वही हो सकता है, जो नवतत्त्व का ज्ञाता हो।68 दशाश्रुत- स्कन्धसूत्र में विवेचन करते हुए निर्देश दिया गया है कि जिस प्रकार भिक्षु-प्रतिमाधारी को विशुद्ध संयम पर्यायी और विशिष्ट श्रृतज्ञानी होना आवश्यक है, उसी प्रकार उपासक-प्रतिमाधारी को बारहव्रत के पालन का अभ्यासी और सामान्य श्रुतज्ञानी भी अवश्य होना चाहिए। प्रतिमाधारी श्रावक को सांसारिक जिम्मेदारियों से निवृत्त होना चाहिए। यद्यपि वह सातवीं प्रतिमा तक गृह कार्यों का त्याग नहीं कर सकता है, फिर भी प्रतिमा के नियमों का शुद्ध पालन करना अत्यावश्यक है। अभिधानराजेन्द्रकोश के अनुसार प्रतिमाधारी श्रावक आस्तिक्य-गुणवाला, वैयावृत्य करने वाला, व्रती, गुणवान्, लोकव्यवहार विरत, संवेग मतिमान, बुद्धिमान् एवं मोक्षाभिलाषा से वासित होना चाहिए।69
प्रतिमा ग्रहण के सम्बन्ध में यह ज्ञातव्य है कि ग्यारह प्रतिमाओं में से किसी भी प्रतिमा को धारण करने वाले व्यक्ति द्वारा आगे की प्रतिमा के नियमों का पालन करना आवश्यक नहीं होता है। वह स्वेच्छानुसार उनका पालन कर सकता है अर्थात पहली प्रतिमा में सचित्त का त्याग या श्रमणभूत जीवन धारण कर सकता है, किन्तु आगे की प्रतिमाएं धारण करने वाले साधक को उसके पूर्व की सभी प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करना आवश्यक होता है जैसेसातवीं प्रतिमा धारण करने वाले व्यक्ति को सचित्त का त्याग करने के साथ ही सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य, पौषध, कायोत्सर्ग आदि प्रतिमाओं का भी यथार्थ रूप से पालन करना आवश्यक है।