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उपासकप्रतिमाराधना विधि का शास्त्रीय विश्लेषण ...441 है। यदि उपर्युक्त कथन के अनुसार तपस्या की जाए, तो चार मास में चौबीस चोले की तपस्या करना आवश्यक हो जाता है तथा प्रतिमाधारी द्वारा तिविहार की तपस्या या बिना पौषध के तपस्या करना भी उचित नहीं है, अत: उक्त कथन कपोल कल्पित लगता है। आनन्द आदि श्रावकों द्वारा प्रतिमा-वहन के समय की गई तपाराधनाओं के जो उल्लेख मिलते हैं तथा शारीरिक-कृशता का जो वर्णन पढ़ने को मिलता है, वह व्यक्तिगत जीवन का वर्णन है, उसमें भी इस प्रकार के तप का वर्णन नहीं है। साधक अपनी इच्छा से कभी भी कोई विशिष्ट तप कर सकता है।66 ___ कई विचारकों का यह मानना है कि वर्तमान में कोई भी श्रावक प्रतिमाओं की आराधना नहीं कर सकता है। उनका यह कहना है कि जिस प्रकार भिक्षुप्रतिमा का विच्छेद हो गया है, उसी प्रकार श्रावकप्रतिमा का भी विच्छेद हो गया है। यह विद्वज्जनों के लिए निश्चित रूप से अन्वेषणीय है।
जहाँ तक प्रतिमाग्रहण का प्रश्न है, वर्तमान की श्वेताम्बर- परम्परा में यह विधान लुप्त सा हो गया है, किन्तु दिगम्बर-परम्परा में अभी भी मौजूद है। श्वेताम्बरमान्य उपासकदशांगटीका, दशाश्रुतस्कन्ध आदि आगम ग्रन्थों एवं विंशतिविंशिका (8वीं शती), पंचाशक प्रकरण (8वीं शती), तिलकाचार्यसामाचारी (12 वीं शती),आचारदिनकर (16 वीं शती) आदि आगमेतर ग्रन्थों में इन प्रतिमाओं के स्वरूप एवं विधि का सम्यक् उल्लेख हुआ है। 14वीं शती के विधिमार्गप्रपा में गीतार्थ मुनि का नामनिर्देश कर यह कहा गया है कि वर्तमान में प्रतिमारूप श्रावकधर्म विच्छिन्न हो गया है।67 अत: इसमें प्रतिमाविधि की चर्चा भी नहीं की गई है, किन्तु जो लोग इन प्रतिमाओं को स्वीकारते हैं, वे दलील देते हैं कि जिस प्रकार की कठोर और उग्र साधना भिक्षुप्रतिमाधारी की होती है, वैसी कठोर और उग्र साधना श्रावकप्रतिमाधारी की नहीं होती।
दूसरा वज्रऋषभनाराचसंहनन वाला बलिष्ठ व्यक्ति ही प्रतिमा धारण कर सकता हो-ऐसा भी कहीं आगम में उल्लेख नहीं है। तीसरा विचारणीय तत्त्व यह है कि श्रावक-प्रतिमाओं के विच्छेद होने का शास्त्रीय प्रमाण क्या है ? यदि इसका कोई आगम-प्रमाण नहीं है, तो फिर उनके अपने अभिमतानुसार वर्तमान में भी श्रावक-प्रतिमा धारण की जा सकती है। यदि हम 'प्रतिमा' शब्द का यह