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. जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
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के सेवन का त्याग करें।
• आठवीं प्रतिमा ग्रहण करने वाला श्रावक आठ महीने तक स्वकृत आरंभ (हिंसादि पापमय प्रवृत्तियों) का त्याग करें।
• नवीं प्रतिमा धारण करने वाला साधक नौ मास तक दूसरों के द्वारा आरंभ करवाने का वर्जन करें।
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प्रतिमा : एक विमर्श
व्रत धारण करने वाला व्रतधारी श्रावक कहा जाता है। वह एक व्रत भी ग्रहण कर सकता है और बारहव्रत भी । प्रतिमा ग्रहण करते समय अनेक प्रकार के व्रत, प्रत्याख्यान आदि धारण किए जाते हैं, किन्तु प्रतिमा धारण में यह विशेषता होती है कि इसमें जो भी प्रतिज्ञा की जाती है, उसमें कोई आगार नहीं रखा जाता है, अपितु नियत समय तक प्रतिज्ञा का दृढ़ता के साथ पालन किया जाता है।
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अनुमतित्याग-प्रतिमाधारी श्रावक दस माह तक आधाकर्मादि (स्वयं के निमित्त बने हुए) आहार का त्याग करें ।
ग्यारहवीं प्रतिमा धारण करने वाला श्रावक शिखाधारी हो या मुनि के समान सिर का मुंडन करवाए और ग्यारह महीने तक मुनिचर्या की भाँति जीवन व्यतीत करें | 64
प्रश्न उठता है कि इन प्रतिमाओं की आराधना क्रमपूर्वक करनी चाहिए या अक्रम से ? इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु कार्तिक सेठ के समान एक प्रतिमा को अनेक बार धारण किया जा सकता यह बात भगवतीसूत्र में वर्णित है 165
श्रावक प्रतिमा के सम्बन्ध में एक प्रचलित कल्पना यह भी है कि प्रथम प्रतिमा में एकान्तर उपवास, दूसरी प्रतिमा में निरन्तर बेले, तीसरी में तेले, यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा में ग्यारह - ग्यारह की तपश्चर्या निरन्तर की जानी चाहिए, किन्तु इस विषय में कोई आगम- प्रमाण उपलब्ध नहीं है तथा ऐसा मानना संगत भी प्रतीत नहीं होता है। चूंकि इतनी तीव्र तपस्या तो भिक्षुप्रतिमा में भी नहीं की जाती है, फिर यह अवधारणा कब और कैसे आई ? इसके सम्बन्ध में पुष्ट प्रमाण के बिना कुछ भी कह पाना मुश्किल है।
श्रावक की चौथी प्रतिमा में महीने के छः पौषध करने का विधान अवश्य