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406... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
माला पहनाने के पूर्व बोली जाने वाली गाथाएँ ये हैंनिवुइ पह सासणयं, जयउ सया सव्वाभावदेसणयं। कुसमयमयनासणयं, जिणिंदवर वीर सासणयं ।।1।। जह लद्धजयस्सरणे, कुणंति पुज्जावि मंगलं लोए। तह उवहाणतवं ते, करति तह मंगलं गुरूणो।।2।।
सुबोधासामाचारी,186 विधिमार्गप्रपा187 एवं आचारदिनकर188 में मालाग्राही के बन्धु-बान्धवों के हाथों माला पहनाए जाने का उल्लेख है, किन्तु वह माला गुरू द्वारा अभिमंत्रित होकर, गुरू के द्वारा ही मालाग्राही के कुटुम्बियों को दी जाती है-ऐसा भी स्पष्ट सूचन है। परन्तु माला पहनाते समय किसका स्मरण करना चाहिए, इस सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं दी गई है। खरतरगच्छ की वर्तमान सामाचारी में सात बार नमस्कारमन्त्र का स्मरण कर माला पहनाने की विधि है।189 यहाँ सात बार नमस्कारमन्त्र का स्मरण करना सप्तविध उपधान की पूर्णाहुति का प्रतीक होना चाहिए।
यदि वैदिक या बौद्ध-परम्परा की दृष्टि से तुलना करें, तो उनमें उपधान के समकक्ष किसी तरह का विधान तो संभवतया प्रचलित हो सकता है जैसे-हिन्दू धर्म में प्रचलित विद्याध्ययन या वेदाध्ययन-संस्कार को ज्ञानार्जन की दृष्टि से उपधान कहा जा सकता है। यद्यपि इस संस्कार में तप-नियम-संयम या क्रियादिरूप साधनाएँ तो प्रमुख रूप से नहीं होती, फिर भी उपधान क्रिया की भांति गुरू के सन्निकट रहते हुए आवश्यकसूत्रों के स्थान पर वेद ग्रन्थों का अध्ययन करवाया जाता है, किन्तु उपधान नाम से कोइ वर्णन प्राप्त नहीं होता है। उपसंहार
भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव की संस्कृति है। अनेक स्थानों पर 'गुरूसाक्षात्परब्रह्म' कहकर उसकी सर्वोपरिता को भी स्वीकार किया गया है। वस्तुस्थिति भी ऐसी ही है। माता-पिता बालक का पालन-पोषण करते हैं किन्तु उसे संस्कारवान बनाकर सुसभ्य नागरिक एवं आत्माभिमुखी बनाने का कार्य गुरू ही करते हैं। इस महान् उत्तरदायित्व के कारण ही गुरू को परमब्रह्म(परमात्मा) की उपमा दी है।
भारतीय परम्परा के इतिहास का अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि इस