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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...407 देश की प्राचीन पद्धति के अनुसार जैसे ही बालक की बुद्धि का विकास प्रारम्भ हो, उसे योग्य गुरू को सौंप देने का विधान है। गुरूकुलवास में विद्यार्थी शिक्षापूर्ण न होने तक अपने गुरू के समीप रहता था। जहाँ अक्षराभ्यास, भाषाबोध, व्याकरण दर्शन आदि के अध्ययन के साथ-साथ सदाचरण, आन्तरिक निर्मलता, अतिथि सेवा, सहयोग, सहानुभूति, परदुःख कातरता और परोपकार की शिक्षा भी दी जाती थी। ज्ञानार्जन के साथ चारित्रपक्ष को खास तौर पर परिपक्व बनाया जाता था।
पूर्वकाल में राजपरिवार तथा श्रेष्ठीजन की सन्तानें भी गुरूकुलवास में रहकर अध्ययन करती थीं। वे संसार की असारता का बोध गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के पूर्व ही कर लेते थे, ताकि गृहस्थ जीवन की यात्रा सुखद एवं शान्तिपूर्ण तरीके से सम्पन्न कर सकें। __ज्ञानार्जन एवं चारित्रविकास की दृष्टि से उपधानकाल को गुरूकुलवास की संज्ञा दी जा सकती है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से गुरूकुल की अपेक्षा उपधान का महत्त्व सर्वाधिक है, क्योंकि उपधान काल में आत्मा के स्वाभाविकगुण सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चारों की युगपद् साधना की जाती है जबकि गुरूकुलवास में प्रमुख रूप से ज्ञान एवं चारित्र ये दो पक्ष पुष्ट किये जाते हैं।
समीक्षात्मक पहलू से मनन करें तो पाते हैं कि गुरूकुलवास की भांति उपधानकाल में जो प्रशिक्षण एवं संस्कार दिए जाते हैं वे अन्यत्र असंभव हैं। क्योंकि उपधान तप की आराधना में आचार्य स्वयं आदर्श की साक्षात् प्रतिमूर्ति होते हैं तथा विनय-विवेक, नम्रता-धीरता, सरलता-सहजता के जीते जागते प्रतिबिम्ब होते हैं अतः शिष्य के हृदय में उनकी अमिट छाप स्वत: अंकित हो जाती है, शिष्य अनायास गुरूचिह्नों का अनुकरण करने लगता है और एक दिन गुरू का सर्वस्व बन जाता है। इस प्रकार गुरूकुलवास में जीवन संवरता है, मन सुधरता है, चैतसिक-वृत्तियों में परिवर्तन होने के साथ जीवन-यात्रा का लक्ष्य निश्चित हो जाता है। इससे सिद्ध है कि उपधान प्रत्येक व्यक्ति के लिए की जाने वाली अनिवार्य साधना है। इस साधना में प्रविष्ट हुआ व्यक्ति न केवल सूत्रार्जन ही करता है, अपितु संस्कार-धन का संग्रह करते हुए मानव से महामानव की भूमिका पर आरोहण कर लेता है।