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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...375
उसका मूल्य कम नहीं हैं, फिर भी उससे सम्बन्धित विधि-विधान की प्राचीनता सिद्ध करना, यह भी परमावश्यक है।
इससे आगे बढ़ते हैं, तो सर्वप्रथम महानिशीथसूत्र में उपधान तप से सम्बन्धित प्राचीनतम विधि-विधान प्राप्त होते हैं। इस ग्रन्थ का तीसरा अध्ययन समग्रतः उपधान विधि से ही सम्बन्धित है। इस अध्ययन में उपधान का स्वरूप आदि एवं अविधि - पूर्वक सूत्राध्ययन करने से होने वाले दोष आदि का विस्तृत निरूपण किया गया है।102 आज भी महानिशीथसूत्र के आधार पर ही उपधान तप की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता सिद्ध की जाती है तथा मूलविधि से तपोपधान करने वाले साधक इसी ग्रन्थ का अनुकरण करते हैं।
इस प्रकार सुस्पष्ट है कि महानिशीथसूत्र उपधानतप का प्रतिपादक ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त अन्य आगम-ग्रन्थों में इसका कोई निर्देश नहीं है। जहाँ तक निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका - साहित्य का सवाल है, उनमें भगवतीटीका, गच्छाचारटीका, आवश्यकटीका, प्रवचनसारोद्धारटीका आदि में उपधान शब्द की परिभाषाएँ तो पढ़ने को मिलती हैं । किन्तु कोई विशेष विवरण उल्लिखित हुआ हो ऐसा शोधपरक दृष्टि से देखने में नहीं आया है।
शती),
जब हम पूर्वकाल से लेकर मध्यकालीन ( 5 वीं से 14 वीं शती) ग्रन्थों पर दृष्टिपात करते हैं, तो क्रमशः तिलकाचार्यसामाचारी 103 (12वीं शती), सुबोधासामाचारी104(12वीं शती), सामाचारीप्रकरण(13वीं विधिमार्गप्रपा 105(14वीं शती) आदि ग्रन्थों में न केवल उपधानविधि का स्वरूप ही प्राप्त होता है, अपितु उससे सम्बन्धित कईं विधि-विधानों का एक सुव्यवस्थित एवं सुगठित रूप भी देखने को मिलता है। वर्तमान परम्परा में ये सभी विधि-विधान अपनी-अपनी सामाचारी के अनुसार ही प्रवर्त्तित हुए देखे . जाते हैं। इन ग्रन्थों में उपधान की मूलविधि महानिशीथसूत्र के अनुसार कही गई है। साथ ही आपवादिक - विधि भी विवेचित है । उपधान की इस आपवादिक विधि का प्रवर्त्तन जैन गीतार्थ मुनियों द्वारा व्यक्ति की असमर्थता, संहननक्षीणता एवं देश-काल के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए किया गया है।
जब हम उत्तरकालीन( 15वीं से 19वीं शती) ग्रन्थों का पर्यावलोकन करते हैं, तो उनमें आचारदिनकर 106 (15वीं शती), आचारप्रदीप 107 (16वीं शती), उपदेशप्रसादवृत्ति108 हीरप्रश्न, 109 सेनप्रश्न 110 (16वीं शती) आदि ग्रन्थों में