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374... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... शब्द का प्रयोग देखा जाता है।97 सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का छठवां अध्ययन ‘महावीरस्तुति' नाम का है। उसमें भगवान महावीर की उत्कृष्ट साधना का वर्णन करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार समुद्रों में स्वयंभूरमण नामक समुद्र एवं नागपतियों में धरणीन्द्र नाग को श्रेष्ठ कहा गया है, उसी प्रकार तपोपधान में मुनि की साधना सर्वश्रेष्ठ है। इसके सिवाय उपधान विधि को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है।
तदनन्तर स्थानांगसूत्र में नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य के नामों में 'उपधान श्रुत' ऐसा नामोल्लेख मात्र दर्शित होता है। इसमें आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के 9 अध्ययनों को नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य के रूप में बतलाया है और उन्हीं अध्ययनों के आधार पर 'उपधानश्रुत' का नाम उल्लिखित है। इससे अधिक इसमें कोई चर्चा नहीं है।
जब हम समवायांगसूत्र पढ़ते हैं तो उसमें भी स्थानांगसूत्र के समान ही नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य में 'उपधानश्रुत' नाम का निर्देश मात्र प्राप्त होता है, इसके सिवाय कोई चर्चा नहीं की गई है।99
जब हम प्रश्नव्याकरणसूत्र और विपाकसूत्र का अध्ययन करते हैं, तो वहाँ छठ(लगातार दो उपवास) और अट्ठम(लगातार तीन उपवास) तप की साधना द्वारा आत्मा को भावित करने के अर्थ में 'उपधान' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस आधार पर यह कह सकते हैं कि तप साधना पूर्वक आत्मज्ञान प्रकट करना ही उपधान है।100
जब हम उत्तराध्ययनसूत्र का मनन करते हैं, तो उसमें उपधान योग्य व्यक्ति के लक्षणों का निर्देश प्राप्त होता है।101 इसमें सूत्रज्ञान एवं शिक्षा ग्रहण करने के अधिकारी के रूप में बहुत से गुणों का विवेचन करते हुए बताया गया है कि श्रुतज्ञान कौन प्राप्त कर सकता है और कौन नहीं? इसके साथ यह भी बतलाया गया है-जो सदा गुरूकुल में रहता है, योगवान है, उपधान (शास्त्राध्ययन से सम्बन्धित विशिष्ट तप) में निरत है, प्रिय कार्य करता है और प्रियभाषी है, वह शिक्षा प्राप्त करने योग्य है।
इस विवेचन के आधार पर यह निर्णीत होता है कि अंगसूत्रों, उपांगसूत्रों एवं मूलसूत्रों तक के ग्रन्थों में लगभग उपधानविधि का सुव्यवस्थित स्वरूप उपलब्ध नहीं है। हाँ! भाव उपधान की चर्चा बहुत विशद रूप से प्राप्त है। यद्यपि