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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन...373
जिनशासन में आवश्यक सूत्रों का अधिकार प्राप्त करने एवं करवाने के उद्देश्य से व्यक्ति को तपोमय साधना में प्रवेश करवाया जाता है। जैन ग्रन्थों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अधिकार प्राप्त व्यक्ति द्वारा पढ़े- पढ़ाए गए सूत्र ही फलदायी होते हैं, अन्यथा वह महापाप का भागी और अनंत संसार को बढ़ाने वाला होता है अतः जब भी सद्गुरू का संयोग मिले, उपधान- तप अवश्य कर लेना चाहिए।
जैन परम्परा में उपधान कृत व्यक्ति द्वारा इतना सुनिश्चित किया जाता है कि वह आवश्यक सूत्रों को पढ़ने-पढ़ाने का अधिकारी बन गया है। अब वह स्वयं अन्यों के लिए उन सूत्रों को प्रतिस्थापित कर सकता है यानी दूसरों को उन सूत्रों का अध्ययन-अध्यापन करवा सकता है । सारत: जैन सूत्रों का विशिष्ट ज्ञान समुपलब्ध कराने के लिए जैन - गृहस्थ को उपधान की दीक्षा दी जाती है अथवा उपधान की साधना में अनुप्रविष्ट करवाया जाता है।
यहाँ प्राक् ऐतिहासिक युग से लेकर अर्वाचीन काल तक उपधानविधि किस रूप में उपलब्ध होती है ? इस सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक है।
जहाँ तक जैन आगम साहित्य का प्रश्न है, वहाँ आचारांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में उपधान सम्बन्धी संकेत अवश्य प्राप्त होते हैं। इससे इतना तो निःसन्देह कहा जा सकता है कि यह साधना पद्धति महावीरकालीन एवं अत्यन्त प्राचीन है ।
जब हम आचारांगसूत्र का अवलोकन करते हैं, तो उसमें उपधान का वास्तविक अर्थ क्या है ? उपधान की यथार्थ साधना क्या है? भाव-उपधान क्या है ? आदि मौलिक तत्त्व स्पष्टतः जानने को मिलते हैं।
आचारांगसूत्र का नौवां अध्ययन 'उपधानश्रुत' है। 96 इस अध्ययन में भगवान महावीर की उत्कृष्ट तपोसाधना को भाव उपधान कहा गया है। यह अध्ययन भगवान महावीर की जीवन साधना से ही सम्बन्धित है तथा उनकी विशिष्ट साधना को लक्ष्य में रखकर ही 'उपधानश्रुत' - ऐसा नाम रखा गया है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि विशिष्ट प्रकार का तप करते हुए आत्मज्ञान (केवलज्ञान) एवं आत्मदर्शन (केवलदर्शन) को समुपलब्ध करना ही वास्तविक उपधान है। यह उपधान का पारम्परिक फल है।
जब हम सूत्रकृतांगसूत्र पढ़ते हैं, तो वहाँ मुनि की उपमा के
रूप में उपधान