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________________ 372... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक उपधान विधि की ऐतिहासिक विकास - यात्रा जैन धर्म व्यक्तिप्रधान या जातिप्रधान धर्म नहीं है, अपितु गुणप्रधान धर्म है। इसमें जात-पात या ऊँच-नीच को लेकर कोई भेद- द-भाव नहीं है, वह कर्म पर बल देता है। जो व्यक्ति विनय, विवेक, सदाचार, संयम, धैर्य, धर्मज्ञ आदि गुणों से युक्त हैं, जिसमें अपेक्षित योग्यताएँ रही हुईं हैं, जो हृदय से सरल और संतोष आदि गुणों को धारण किया हुआ है, वही व्यक्ति जैन धर्म के आवश्यक सूत्र पाठों को पढ़ने का अधिकार प्राप्त कर सकता है। जैन परम्परा के गणधरों या पूर्वाचार्यों द्वारा रचे गए सूत्र एवं शास्त्र मंत्र शक्तियों के पुंज हैं। वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। वे सूत्र और शास्त्र न सामान्य व्यक्ति द्वारा पढ़े जा सकते हैं और न ही सामान्य पद्धति से ग्रहण किए जा सकते हैं। उन्हें धारण करने के लिए एक विशिष्ट साधना का अभ्यास करना होता है। सामान्यतया एक निश्चित अवधि तक अनेक नियमों-उपनियमों का अनुपालन करते हुए एवं गृह-व्यापार से सम्बन्धित सावद्यकारी प्रवृत्तियों का परित्याग करते हुए धर्मस्थान और धर्मगुरू के सन्निकट रहना होता है। इस समय आवश्यक सूत्र के पाठ गुरूमुख से सविधि ग्रहण किए जाते हैं। इसके विपरीत अनुष्ठान करने से व्यक्ति प्रायश्चित्त (दण्ड) का अधिकारी बनता है। इस प्रकार की साधना विधि को 'उपधान' संज्ञा प्रदान की गई है। यहाँ प्रसंगवश यह कहना भी सार्थक होगा कि जैन धर्म के कुछ सूत्र ऐसे हैं, जिन्हें पढ़ने का मुख्य अधिकार गृहस्थ को दिया गया है, कुछ शास्त्रपाठ ऐसे हैं, जो मुनियों के योग्य बतलाए गए हैं तथा कुछ सूत्र इस प्रकार के हैं, जिन्हें पढ़ने-पढ़ाने का अधिकार दोनों को प्राप्त है। उपधान तप के दौरान उन सूत्रों का अभ्यास करवाया जाता है, जिन्हें पढ़ने-पढ़ाने का अधिकार गृहस्थ एवं मुनि दोनों को सम्प्राप्त हैं। यह सामान्य नियम है कि आवश्यक सूत्र पाठों को ग्रहण करने के बाद ही कोई व्यक्ति जैन दीक्षा अंगीकार कर सकता है तथा जैन मुनि के योग्य आगम ग्रन्थों का भी अध्ययन कर सकता है। इससे यह सुसिद्ध है कि उपधान किया हुआ व्यक्ति ही जैन मुनि बनने का सच्चा अधिकारी होता है। दूसरे, जो व्यक्ति उपधान तप कर लेता है, वह मुनि जीवन जीने का अभ्यासी भी बन जाता है। इस प्रकार जैन धर्म की यह साधना कई दृष्टियों से विशिष्ट कोटि की प्रतीत होती है।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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