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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...371 सुवर्ण (एक घड़ी = 10 मण) बोलकर लिया था और इस सुकृत राशि के द्वारा गिरनार तीर्थ पर श्वेताम्बरों का आधिपत्य सिद्ध कर दिखाया था। इतना ही नहीं, जब तक उछामणी के रूप में बोले गए स्वर्ण का मूल्य चुकाया नहीं, तब तक पेथड़शाह ने चौविहार का प्रत्याख्यान धारण कर रखा था यानी उछामणी में बोले गए द्रव्य को चुकाने के बाद ही उन्होंने अन्न-जल ग्रहण किया था। इस प्रकार उछामणी की परम्परा प्राचीन और ऐतिहासिक है। यह जैन संघ का सौभाग्य है कि आज भी यह व्यवहार सर्वमान्य बना हुआ है।
उछामणी का अर्थ - उछामणी दो शब्दों के योग से बना है-उत् + सर्पण अर्थात ऊँचा चढ़ना। उछामणी शब्द की यह व्युत्पत्ति विद्वत्सम्मत है। दूसरी दृष्टि से इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार बनती है- उत् + शामनी। शमन अर्थात शांत होना, शामन अर्थात शांत करना, शामनी अर्थात शान्त करने वाली। इसके साथ 'उद्' उपसर्ग लगा है, जिसका अर्थ होता है-ऊपर उछालने वाली। संस्कृत व्याकरण के नियम से उत् + शामनी को जोड़ने पर 'उच्छामनी' शब्द बनता है। इसका ही गुजराती रूप 'उछामणी' है। हृदय के भावों को ऊँचा उठाते हुए उत्कृष्ट लाभ लेना उछामणी है अथवा जिसके द्वारा आत्मा की उन्नति होती है, आत्मा के परिणाम ऊपर उठते हैं, वह उछामणी है।95
जिनशासन की यह परम्परा विशिष्ट प्रयोजनों को लेकर प्रचलित हुई है। उछामणी करने से द्रव्य का सत्कार्य में उपयोग होता है, त्यागवृत्ति की भावना बढ़ती है, संघ के लिए अनुमोदनीय प्रसंग बनता है, जिनशासन की महती प्रभावना होती है, माला पहनाने वाला धन्य हो जाता है। माला की उछामणी बोलने वाला मोहनीय कर्म की प्रकृति का क्षयोपशम कर लेता है। इस उछामणी के पीछे किसी प्रकार का स्वार्थ निहित न होने से द्रव्य-व्यय का अनन्तगुना लाभ मिलता है, पुण्यानुबन्धी पुण्य का उत्कृष्ट बन्ध होता है। दूसरे, मालारोपण के दिन उछामणी का कार्यक्रम होने से ही विशिष्ट प्रकार का माहौल बनता है तथा देवपुरी-सा वातावरण निर्मित होता है। उसके प्रभाव से कुटुम्बियों, धनिकवर्गों एवं दानवीरों का उत्साह अनायास बढ़ने लगता है। फलत: देवद्रव्य आदि की अटूट वृद्धि होती है। इस प्रकार उछामणी की परम्परा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।