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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...365
और उस पंचमंगलसूत्र का अध्ययन नंदी किए बिना नहीं करवाया जा सकता है। वह नंदीरचना आश्विन शुक्ला दशमी या उसकी परवर्ती तिथियों में की जा सकती है, क्योंकि उसके लिए वही काल उत्तम माना गया है।
दूसरा प्रयोजन प्राकृतिक दृष्टि से यह माना जा सकता है कि आश्विन शुक्ला दशमी के बाद का समय उपधानवाहियों के लिए सर्वथा अनकल होता है। इस समय न वर्षा का जोर रहता है, न सर्दी का प्रकोप और न ही गर्मी का प्रभाव। __ यह अनुभूतिजन्य है कि बाह्य वातावरण व्यक्ति के मन को काफी हद तक प्रभावित करता है। बाह्य पर्यावरण अनुकूल होने से उपधानवाहकों को बहुत कुछ अनुकूलताएँ मिल जाती हैं। यद्यपि साधना को गतिशील बनाने के उद्देश्य से कठोर परिस्थितियों का निर्माण होना चाहिए, किन्तु जो लोग प्रथम बार श्रमणतुल्य जीवनचर्या की अनुभूति और आचरण करने के भावों को लेकर आए हैं, वे प्रारम्भ में ही कठोर परिस्थितियों से विचलित न हो जाए और कुछ स्थितियाँ सामान्य रहें, ताकि उनकी साधना क्रमशः आगे बढ़ सके इस दृष्टि से यह समय उपयुक्त है।
इसमें तीसरा कारण यह स्वीकारा जा सकता है कि जैन साधु-आगमविधि के अनुसार नवकल्पी-विहार करने वाले होते हैं। वे सर्दी या गर्मी में लम्बे समय तक एक स्थान पर रह पाएं, यह आवश्यक नहीं हैं। जबकि इस आराधना के लिए कम से कम दो महीना एक ही स्थान पर रहना अनिवार्य होता है, जो स्वस्थ साधु के लिए अवैधानिक है। इस दृष्टि से भी विजयादशमी या उसके तुरन्त बाद वाली परिपाटी सहेतुक प्रतीत होती है।86
समाहारतः जैनागमों या मध्ययुगीन ग्रन्थों में उपधान के काल को लेकर लगभग कोई विवेचन नहीं है। यह परवर्ती आचार्यों की देन है। उन्होंने जो तर्क दिए हैं वे कुछ अपेक्षाओं से समय के अनुकूल सिद्ध होते हैं। मालारोपण का सामान्य स्वरूप
हीरप्रश्न नामक ग्रन्थ में यह उल्लिखित है कि उपधान तप ज्ञान की आराधना के लिए किया जाता है और मालारोपण उस तप के उद्यापन निमित्त होता है यानी मालारोपण उपधानतप का उद्यापन रूप है।87 आचारदिनकर में कहा गया है कि मालारोपण सभी व्रतों का उद्यापनरूप है और माला तीर्थंकर