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________________ 364... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक साधकों की दृष्टि से किया गया है, वहीं आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग आदि सूत्रों में मुनिसाधना के दृष्टिकोण को लेकर 'उपधान' शब्द का भी प्रयोग है। आचारांगसूत्र का नौवां अध्ययन 'उपधानश्रुत' नाम का है और वह भगवान महावीर की तपोमय साधना का वर्णन करता है। इस सूत्र में उत्कृष्ट तपोसाधना को उपधान कहा गया है । सूत्रकृतांगसूत्र में 'उपधानवीर्य' को श्रमण का विशेषण बतलाया है तथा एक सुन्दर रूपक प्रस्तुत करते हुए यह कहा है कि जिस प्रकार पक्षी पंख फड़फड़ाकर धूल झाड़ देता है, उसी प्रकार श्रमण भी उपधान-तप से कर्मरज को हटा देता है । स्थानांगसूत्र में श्रमण की बारह प्रतिमाओं को 'उपधान प्रतिमा' कहा गया है। एक जगह चार अन्तक्रियाओं में ‘उपधानवान’-यह अणगार का विशेषण भी दिया है। 83 आचारांगनिर्युक्ति में उल्लेख है कि जिस प्रकार जल आदि द्रव्य साधनों के द्वारा मलीन वस्त्र को स्वच्छ किया जाता है, उसी प्रकार भाव उपधान द्वारा आठ प्रकार के कर्मों को धोया जाता है। 84 उत्तराध्ययनसूत्र में उपधानवाही (श्रुतअध्ययन काल में तप करने वाला) को शिक्षा ग्रहण के योग्य बताया है | 85 उक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि उपधानतप का अधिकारी गृहस्थ एवं साधु दोनों हैं, क्योंकि श्रुत - अध्ययनकाल में उत्कृष्ट तपोमय साधना करने का अधिकार दोनों को समान रूप से प्राप्त है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में गृहस्थ द्वारा श्रुत प्राप्ति के निमित्त की जाने वाली तप साधना को उपधान एवं मुनि द्वारा की जाने वाली तप साधना को योगवहन की संज्ञा दी गई है। उपधान की आराधना कब हो ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उपधान कब करना चाहिए ? यदि इस सम्बन्ध में आगम ग्रन्थों का अवलोकन करते हैं, तो वहाँ तत्सम्बन्धी कोई निर्देश संभवत: नहीं है, किन्तु 'हीरप्रश्न' और 'सेनप्रश्न' नामक ग्रन्थों में यह उल्लेख मिलता है कि उपधानतप की आराधना आश्विन आदि महीनों में की जा सकती है। प्रचलित परम्परा में भी आश्विन शुक्ला दशमी या उस तिथि के निकटवर्ती समय में इस अनुष्ठान को करवाए जाने की विशेष प्रवृत्ति देखी जाती है। इसके पीछे कुछ प्रयोजन हैं। प्रथम प्रयोजन यह है कि मुख्यतः पंचमंगलश्रुतस्कन्धसूत्र के उपधान में आराधक वर्ग की संख्या अधिक होती हैं
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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