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________________ उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...363 कि 'व्यक्ति कर्म से महान् होता है, जाति विशेष में जन्म लेने से नहीं' अर्थात व्यक्ति का मूल्य आचरण से है। व्यक्ति की विशिष्ट योग्यताएँ एवं क्षमताएँ ही आचरण का रूप धारण करती हैं। यही बात उपधान वहन करने वाले आराधकों के सम्बन्ध में है। जैन परम्परा यह मानती है कि उपधान करने वाला व्यक्ति कुछ योग्यताओं से परिपूर्ण होना चाहिए, क्योंकि योग्य व्यक्ति ही सूत्रों को धारण कर सकता है। जैन धर्म के आवश्यकसूत्र गणधर (चौदह पूर्वो के ज्ञाता) रचित और मन्त्र रूप माने जाते हैं। मन्त्र प्रधान सूत्र विधिपूर्वक ग्रहण किए जाने पर ही आत्मस्थ बनते हैं। दूसरे, योग्य व्यक्ति के हाथ में दी गई विद्या सहस्रगुना लाभदायी होती है जबकि अयोग्य के हाथ में दिया गया विद्या धन हानिकारक होता है, अत: उपधान तप करने वाला व्यक्ति योग्य होना चाहिए। इस सम्बन्ध में उत्तराध्ययनसूत्र का निर्देश है कि जो शिष्य सदा गुरूकुलवास में रहता है, योग को वहन करने की इच्छा वाला है, उपधानवान है, प्रियकार्य को करने वाला है और प्रिय बोलने वाला है, वही शिक्षा (ग्रहणआसेवन) प्राप्त करने के योग्य है।81 स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि जो विनयरहित है, विगयकारक द्रव्यों को खाने में आसक्त बना हुआ है और क्रोधयुक्त चित्तवाला है, वह वाचना (सूत्रग्रहण) के लिए अयोग्य है।82 इसका तात्पर्य है कि विनम्र, अनासक्त, उपशान्त एवं अप्रमत्त व्यक्ति शिक्षाग्रहण के योग्य होता है। पूर्व विवेचित सम्यक्त्व आदि व्रतारोपण-विधियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उपधानवाही को उक्त गुणों के अतिरिक्त मार्गानुसारी के पैंतीस गुण, श्रावक के इक्कीस गुण इत्यादि से भी युक्त होना चाहिए। अत: उपधानवाही को उपधान में प्रवेश करने के पूर्व स्वयोग्यता का मूल्यांकन अवश्य कर लेना चाहिए अथवा उन योग्यताओं को विकसित करने हेतु प्रयत्नशील बन जाना चाहिए। उपधान का अधिकारी : गृहस्थ या मुनि जैन आगम साहित्य में 'उपधान' शब्द का प्रयोग श्रावक एवं साधु-दोनों के लिए हुआ है। हम यह समझते हैं कि उपधान गृहस्थ श्रावक का ही आचार है, किन्तु ऐसा नहीं है। जहाँ महानिशीथसूत्र में उपधान का विवेचन गृहस्थ
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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