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362... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
विक्रम की 11 वीं शती के पश्चात् हुआ प्रतीत होता है । उपधान करवाने का अधिकारी कौन?
जैन विचारणा में विशिष्ट योग्यता प्राप्त मुनि या आचार्य आदि को ही उपधान करवाने का अधिकार प्रदान किया गया है। संभव है, कोई मुनि पचास वर्ष की संयमपर्याय प्राप्त कर चुका हो, किन्तु उसने गीतार्थविहित योग्यता को समुपलब्ध नहीं किया हो, तो उसे उपधान करवाने का अधिकारी नहीं माना जाता है।
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यह स्मरणीय है कि प्राचीन सामाचारी के अनुसार किसी आगम में श्रुतस्कन्ध नामक विभाग हो, तो उस श्रुतस्कन्ध का उद्देश नंदीरचना एवं नंदीविधि के बिना नहीं होता है, तब पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध का उद्देश नंदी के बिना कैसे हो सकता है ? दूसरा तथ्य, 'श्रुतस्कन्ध के उद्देश के लिए नंदी करनी ही चाहिए' - ऐसा परम्परागत वचन स्वीकार करते हैं, तो यह भी मानना होगा कि जिस मुनि ने नंदीसूत्र एवं अनुयोगद्वारसूत्र के योग कर लिए हों, वह मुनि ही नंदी की क्रिया करवा सकता है।
तीसरा पहलू यह है कि नंदीसूत्र एवं अनुयोगद्वारसूत्र के योगवहन करने का अधिकारी वही माना गया है, जिसने महानिशीथसूत्र के योग, (जिसमें 52 दिन तक निरन्तर आयंबिल करना होता है) कर लिए हों, क्योंकि आचरणावश महानिशीथसूत्र के योग पूर्ण होने के बाद ही नंदीसूत्र एवं अनुयोगसूत्र के योग किए जाते हैं 180
इस विवेचन से ज्ञात होता है कि जिस मुनि ने महानिशीथसूत्र, नंदीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र के योग कर लिए हों, वही मुनि उपधान करवाने का अधिकारी बनता है।
यदि आगमशास्त्रों के अध्ययन क्रम एवं दीक्षापर्याय क्रम की अपेक्षा से देखें, तो उपधान का अधिकारी मुनि आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन एवं छेदसूत्र आदि के योग भी किया हुआ होता है, क्योंकि इन सूत्रों के योगवहन के पश्चात् ही महानिशीथसूत्र आदि के योग किए जाते हैं। महानिशीथसूत्र के अध्ययन हेतु लगभग बीस वर्ष की दीक्षापर्याय होना आवश्यक है। उपधान करने योग्य कौन?
जैन धर्म व्यक्ति प्रधान नहीं, अपितु गुण प्रधान धर्म है। वह जाति से अधिक कर्म (आचरण) को महत्त्व देता है। भगवान महावीर का उपदेशसूत्र है