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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...359 जैसे पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध नामक प्रथम उपधान में पाँच अध्ययन और तीन चूला है। चूला को उद्देशक भी कहा गया है। इस पंचमंगलसूत्र में अड़सठ अक्षर हैं। महानिशीथसूत्र में एक-एक नमस्कार (आदि के पाँच पद) को एकएक अध्ययन कहा गया है तथा पाँच उपवास करने के बाद पाँच आयंबिल करके पाँच अध्ययन की पृथक्-पृथक् वाचना करने का निर्देश है। छठवां आयंबिल करके छठवें और सातवें पद की वाचना, सातवाँ आयंबिल करके आठवें पद की वाचना और आठवाँ आयंबिल करके नवें पद की वाचना करने का उल्लेख है। इससे ध्वनित होता है कि पूर्वकाल में प्रथम उपधान की वाचना उक्त क्रमपूर्वक दी जाती थी। लगभग विक्रम की 11 वीं शती तक वाचनादान का यही क्रम प्रचलित था।72 तत्पश्चात् वाचनाक्रम को लेकर जो परिवर्तन हुए, उनके सर्वप्रथम संकेत सुबोधासामाचारी में दृष्टिगत होते हैं। इसके अनुसार परिवर्तित वाचनाक्रम इस प्रकार है/3
प्रथम पाँच उपवास, फिर पाँच अध्ययन की प्रथम वाचना करना चाहिए। उसके बाद लगातार आठ आयंबिल और तीन उपवास के अंत में तीन चूलापद की दूसरी वाचना करना चाहिए।
इस पाठांश से सुस्पष्ट है कि आगमकाल में पूर्वसेवा के रूप में किए जाने वाले पाँच उपवास विक्रम की 12वीं शती तक आते-आते पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध के पाँच अध्ययन को वहन करने के आधारभूत बन गए। संभवत: इसी कारण पाँच उपवास करने के अनन्तर पाँच अध्ययन की पहली वाचना देने का प्रवर्तन हुआ तथा आठ आयंबिल और अट्ठम (तेला) के पश्चात् तीन चूला की दूसरी वाचना करने की परिपाटी प्रारम्भ हुई। आज भी वाचनादान की यही । परिपाटी प्रवर्तित है। अनुज्ञाक्रम में परिवर्तन
महानिशीथसूत्र के अनुसार प्राचीनयुग में उपधानयोग्य सूत्रों की अनुज्ञाविधि उस-उस सूत्र के तपवहन के साथ की जाती थी। अनुज्ञा के निमित्त अट्ठमतप किया जाता था। इस प्रकार जब निश्चित सूत्रों का उपधान-तप पूर्ण हो जाता, उसके बाद ही मालारोपण-विधान सम्पन्न होता था। आज अनुज्ञाविधि का क्रम बदल चुका है। वर्तमान परिपाटी में उपधान तप के दौरान नवकार मन्त्र आदि सूत्रों की केवल उद्देश विधि ही करवाते हैं उन सूत्रों की समुद्देश विधि एवं