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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...353 दिनों में, कल्याणक-तप की तिथियाँ आती हों, तो वह तप किया जा सकता है, अथवा दूसरे वर्ष उन कल्याणक- तिथियों की आराधना की जा सकती है।
सुस्पष्ट है कि उपधानतप में अनेक प्रकार की सावधानियां रखी जानी चाहिए और सूचित निर्देशों का भलीभाँति पालन किया जाना चाहिए। उपधान के बहुविध लाभ
• आवश्यकनियुक्तिकार श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने कहा हैजब ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीनों का युगपत्(एक साथ) समागम होता है, तब आत्मा को मोक्षसुख की प्राप्ति होती है अत: उपधान-तप की आराधना के द्वारा रत्नत्रय की एक साथ साधना होती है जैसे सूत्र पढ़ने एवं अर्थ को समझने का अभ्यास करने से ज्ञानयोग की साधना होती है। ज्ञानयोग की साधना के लिए उपवास, आयंबिल, नीवि आदि तप करने से तपोयोग की साधना होती है। एक निश्चित अवधि तक गृह संबंधी, व्यापार संबंधी एवं संसार संबंधी कार्यों का त्याग करने से एवं प्रवर्द्धमान तृष्णाओं पर नियन्त्रण रखने से बाह्यतपरूप वृत्तिसंक्षेप होता है, इससे संवरभाव की साधना होती है और वही संयमयोग की साधना कहलाती है। इस प्रकार उपधान में ज्ञान, संयम एवं तप की युगपत् आराधना होती है।
• तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा का अनुपालन होता है। • तपस्या द्वारा कर्मों का क्षय होता है। • असारभूत शरीर द्वारा सारतत्त्व ग्रहण होता है। • श्रुत की अपूर्व भक्ति होती है। • प्रतिदिन पौषधव्रत में रहने से मुनिजीवन की चर्या का अभ्यास होता है। • विषय-कषायादि में प्रवृत्त होने वाली इन्द्रियों का निरोध होता है।
• कषाय भावों का संवर होता है और समय का अधिकांश भाग संवरनिर्जरा करने वाली क्रियाओं में ही व्यतीत होता है।
• देववंदन आदि क्रियाओं द्वारा देव (परमात्मा) की भक्ति और गुरूवंदन आदि के द्वारा गुरूभक्ति होती है।
• असंयम से निवृत्ति एवं संयम में प्रवृत्ति होती है।
• अन्तर्मुखी बनने की साधना का प्रयास होता है। इससे आत्म तल्लीनता बढ़ती है।