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354... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
. इस आराधना द्वारा आर्त एवं रौद्र ध्यान नष्ट हो जाते हैं तथा आत्मा धर्मध्यान और शुक्लध्यान में रमण करने लगती है।
. उपधान के वातावरण से मन का सम्बन्ध आत्मा से जुड़ता है और इन्द्रियों से पृथक् हो जाता है। फलत: इन्द्रियाँ निग्रहित हो जाती हैं और आत्मभाव की रूचि स्वत: जाग्रत होने लगती हैं। ऐन्द्रिकनिग्रह से संवर और आत्मरमण की रूचि से निर्जरा होती है।
• इस आराधना के द्वारा से बाह्य प्रवृत्तियाँ अल्पतम हो जाने के कारण मन की अनावश्यक कल्पनाएँ भी शिथिल हो जाती हैं। परिणामतः चित्तवृत्तियाँ उपशान्त होने लगती है।
• देववंदन आदि सूत्रों का वाच्यार्थ एवं लक्ष्यार्थ समझ में आने से शास्त्रों के सूक्ष्म रहस्य ग्रहण करने की रूचि पैदा होती है।
• कषायों एवं इन्द्रिय विषयों के त्याग से आंतरिक विशुद्धि होती है और भक्ति-भाव जागृत होता है।
• पौषधव्रत में रहने से श्रमणतुल्य जीवन का आस्वादन होता है। • शारीरिक ममत्वभाव धीरे-धीरे कम होता है।
• शरीर की अशाश्वतता का अनुभव होने से जीवनदृष्टि एवं भेदविज्ञान प्रकाशित होता है।
• परिग्रहादि के प्रति रही हुई मूर्छा मंद हो जाती है।
• इन्द्रिय दमन और कषाय भाव से आत्मा की परिणति शुद्ध होने लगती है।
• नमस्कारमंत्र के प्रति श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम होने से उसके स्मरण एवं जाप द्वारा अनेकश: बाधाएँ स्वतः दूर हो जाती हैं।
• एकासन आदि तप करने से आहारसंज्ञा कम हो जाती है और भटकता हुआ मन स्थिर हो जाता है।
. इस तपाराधना द्वारा शास्त्र पढ़ने की योग्यता विकसित होती है और श्रुत ज्ञानार्जन की उपयोगिता ज्ञात होती है।
• स्थानांगसूत्र के तीसरे स्थान में यहाँ तक कहा गया है कि योगवहन करने वाला साधु अनादि अनंत चार गतिरूप भवजल से पार हो जाता है अर्थात् जन्म-मरण के चक्रव्यूह को समाप्त कर देता है। इसमें यह भी वर्णित है कि