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________________ उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...347 तप को प्रशस्त साधना के रूप में स्वीकारा गया है। वर्तमान में उपधानवाही के लिए निम्न क्रियाएँ अनिवार्य मानी गईं हैं1. सर्वप्रथम प्रात:काल का प्रतिक्रमण करना चाहिए। 2. फिर अहोरात्रि का पौषध ग्रहण करना चाहिए। 3. मौनपूर्वक प्रात:कालीन वस्त्रादि की प्रतिलेखन करना चाहिए। 4. जिनमन्दिर में जाकर चैत्यवंदन करना चाहिए। 5. प्रतिलेखना कर लेने पर वसति प्रमार्जन एवं पवेयणादि की क्रिया करना चाहिए। 6. दिन का एक प्रहर बीतने को हो, तो स्थापनाचार्य के सम्मुख पौरूषी पढ़ाने की विधि करना चाहिए। 7. राईय मुहपत्ति के प्रतिलेखन की क्रिया करना चाहिए। 8. गुरू मुख से उपवास, आयंबिल आदि जो तप करना हो, उसका प्रत्याख्यान लेना चाहिए। 9. फिर मध्याह्नकाल न आ जाए, तब तक स्वाध्याय करना चाहिए, गुरूमहाराज का प्रवचन आदि सुनना चाहिए। 10. दिन का दूसरा प्रहर बीतने को हो, तब जिनालय में जाकर देववन्दन करना चाहिए। 11. उपवास, एकासन, आयंबिल आदि के प्रत्याख्यान का समय पूर्ण होने पर स्थापनाचार्य के सम्मुख प्रत्याख्यान पारने के निमित्त चैत्यवंदन करना चाहिए तथा एकासन आदि कर लेने पर तिविहार का प्रत्याख्यान करके उस आसन से उठना चाहिए और पुनः स्थापनाचार्य के समक्ष चैत्यवंदन करना चाहिए। 12. वसति एवं मूत्र परिष्ठापन की भूमि देखकर आ जाने के बाद सायंकालीन प्रतिलेखन की क्रिया करना चाहिए। 13. दैवसी-प्रतिक्रमण के पूर्व चौबीस मांडला सम्बन्धी प्रतिलेखन की क्रिया करना चाहिए। 14. दिन का चतुर्थ प्रहर बीतने को हो, तब सायंकालीन दैवसिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। 15. रात्रि का प्रथम प्रहर (लगभग ढाई घंटा) बीतने पर संथारा पौरूषी पढ़ाने
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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