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346... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
लिख देना चाहिए और उपधान पूर्ण होने के अनन्तर वह डायरी गुरू को दिखाकर प्रायश्चित्त ग्रहण कर लेना चाहिए। ये कारण उपधानतप को दूषित करते हैं। इन दूषणों का सेवन करने पर उपधान- तप की आराधना पूर्णत: फलीभूत नहीं होती है। यह भी सत्य बात है कि व्यक्ति की स्वयं की असावधानी के कारण ही दूषण लगते हैं, जबकि ज्ञानार्जन करते हुए पूर्ण अप्रमत्तदशा होनी चाहिए । अप्रमत्तता ज्ञान विकास का मुख्य कारण है, सूत्रार्थज्ञान को आत्मसात करने के लिए उसको अर्जित करते समय जो भी असावधानियाँ हुईं हैं, उनसे निवृत्त होने के लिए ही आलोचना सम्बन्धी कारणों को उल्लिखित किया गया है, ताकि आराधक पूर्ण सावधानी बरत सके।
अतः
यहाँ आलोचना दान के सम्बन्ध में यह सामाचारी भी है कि उपधान वहन करते समय किसी भी प्रकार की विराधना न हुई हो, तब भी प्रत्येक उपधान में जितना तप किया जाता हो, अथवा नियम हो, उसका चतुर्थांश तप आलोचना के रूप में दिया जाता है और वह तप उपधान से बाहर निकलने के बाद पौषधसहित किया जाना चाहिए। इसी के साथ स्वाध्याय और ध्यान भी करना चाहिए, जैसे-प्रथम नमस्कारमंत्र सम्बन्धी उपधान में कुछ भी विराधना न हुई हो, तो भी अमुक संख्या में नवकारमंत्र की पक्की माला गिनना, इतनी आलोचना अवश्य दी जाती है। इस परिमाण के अनुसार प्रत्येक उपधान की आलोचना ज्ञात कर लेनी चाहिए। इसके सिवाय आलोचक की शारीरिक स्थिति आदि को देखकर भी न्यूनाधिक आलोचना दी जा सकती है। यह सामाचारी नियम तपागच्छ आदि परम्पराओं में प्रवर्तित है ऐसा सूचित होता है | 58
यह विवरण अर्वाचीन कृतियों के आधार पर लिखा गया है, क्योंकि विक्रम की 16वीं - 17वीं शती तक के उपलब्ध ग्रन्थों में इस विषयक वर्णन लगभग नहीं है।
उपधानवाही की दैनिक क्रियाएँ
उपधान ज्ञान एवं क्रिया का अपूर्व संगमरूप है। उपधानवाही का अधिकतम समय प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, कायोत्सर्ग, खमासमण माला, आदि से सम्बन्धित क्रियाओं में ही व्यतीत होता है। जैन दर्शन में ज्ञान और क्रिया के सम्यक् योग को मोक्ष कहा गया है- 'ज्ञानक्रियाभ्यांमोक्षः'।
उपधान में ज्ञान और क्रिया का सम्यक् योग बनता है, इसीलिए उपधान