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________________ उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...345 हुए ‘आवस्सही' शब्द का प्रयोग नहीं करने से। 21. मलिन या दुर्गन्धयुक्त शरीर या वस्त्र आदि के प्रति घृणा करने से। 22. चरवले को छोड़कर तीन हाथ दूर चले जाने से। 23. मुखवस्त्रिका को छोड़कर तीन हाथ दूर चले जाने से। 24. मल-मूत्र का परिष्ठापन करते समय 'अणुजाणह जस्सावग्गहो' कहना भूल जाने से। 25. मल-मूत्रादि को परिष्ठापित करने के बाद तीन बार 'वोसिरे' शब्द न कहने से। 26. सौ हाथ से अधिक गमनागमन की प्रवृत्ति करने पर भी 'ईर्यापथिक प्रतिक्रमण' न करने से। 27. चौविहार-पाणहार आदि के प्रत्याख्यान कर लेने के बाद मुँह से जूठन निकलने अथवा दाना निकलने से। 28. तिर्यंच जीवों का संघट्ट होने से। 29. कच्चे पानी का स्पर्श होने से। 30. बैठे-बैठे खमासमण या प्रतिक्रमण करने या अन्य क्रियाएँ करने से। 31. रात्रि में शयन करते समय कानों में कुंडल न डालने से। 32. उपधान में आँसू बहाने से। 33. आर्त या रौद्रध्यान करने से। 34. किसी को मर्मवचन बोलने से। 35. किसी के साथ कलह या झगड़ा करने से। 36. अकारण शरीर आदि के लिए साबन का उपयोग करने से। 37. बिना विशेष कारण के वस्त्रादि धुलवाने से। 38. शरीर को गीले रूमाल से पोछने से। 39. अन्य गीत या गायन करने से। 40. शरीर पर तेल लगाने से। 41. किसी की विकथा, निन्दा या चुगली करने से, गुरू-आज्ञा के बिना कोई प्रवृत्ति करने से। इस तरह अनेक कारणों से आलोचना आती है।57 । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त कारणों में से कोई भी कारण बना हो, तो उपधानवाही को स्मरण में रखना चाहिए अथवा आलोचना डायरी में
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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