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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...343 12. मुखवस्त्रिका या चरवला के बिना सौ हाथ दूर तक चला जाए। 13. एकासनादि करने के बाद तिविहार का प्रत्याख्यान करना भूल जाए। 14. खाते हुए कोई कण गिर जाए और वह वस्त्र पर गिरा हुआ रह जाए। 15. सचित्त वस्तु खाने में आ जाए। 16. कच्ची विगय खाने में आ जाए। 17. हरी वनस्पति खाने में आ जाए। 18. जिनालय के दर्शन करना भूल जाए। 19. देववंदन करना विस्मृत हो जाए। 20. किसी त्रस जीव-जंतु की हिंसा हो जाए। 21. मुखवस्त्रिका गुम हो जाए। 22. तीन दिन अन्तराय में हो जाए। 23. चरवला की डंडी टूट जाए।
उपर्युक्त कारणों के होने पर दिन गिर जाता (अमान्य हो जाता) है अर्थात उपधान में वह दिन गिना नहीं जाता है। यह सामान्य सामाचारी है कि जिसके जितने दिन कम होते हैं, उन दिनों की पूर्ति यदि उपधान के साथ ही करते हैं, तो पूर्ति के दिनों में आयंबिल आदि तप करना चाहिए। यदि साधक उन गिरे हुए(अमान्य) दिनों की पूर्ति उपधान में से निकलने के बाद करता है, तो खरतरगच्छ की सामाचारी के अनुसार उपवासपूर्वक आठ प्रहर का पौषध किया जाना चाहिए।56 उपधान के आलोचना योग्य दोष
___ उपधान एक विशिष्ट तपाराधना है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की एक साथ आराधना होती है। इस विधान में विशिष्ट नियमों का परिपालन करना होता है। उन नियमों का यथाविधि अनुसरण न करने पर या उन्हें विस्मृत कर देने पर उपधानवाही को प्रायश्चित्त (दण्ड) आता है। वह प्रायश्चित्त उपवास, आयंबिल, नीवि, स्वाध्याय, जाप आदि के रूप में दिया जाता है। प्रायश्चित्त देने का अधिकारी गुरू होता है। वे साधक के सामर्थ्य एवं दोष लगने की स्थिति का अनुमान करके ही प्रायश्चित्त देते है, अत: किस दोष में कौनसा प्रायश्चित्त आ सकता है ? उसे निर्धारित करने का अधिकार हमें नहीं है।