________________
324... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
"व्यवहार पाँचे भाषिया, अनुक्रमे जेह प्रधान आज तो तेमां 'जीत' छे, ते त्यजीये हो केम वगर निदान साहेबजी
साची ताहरी वाणी" अर्थात पाँच प्रकार के व्यवहार कहे गए हैं उनमें से आज 'जीतव्यवहार' प्रधान है। उसका त्याग किसी भी परिस्थिति में नहीं हो सकता है।18
सुस्पष्ट है कि जीतव्यवहार का पालन करना शास्त्राज्ञा का पालन है और उसका उत्थापन करना शास्त्राज्ञा का उत्थापन करना है। वर्तमान में खमासमण, कायोत्सर्ग आदि विविध क्रियाएँ 'जीतव्यवहार' के अनुसार चल रही हैं, इसमें शंका करने का कोई स्थान नहीं है। ___'आयरणा विहु आणत्ति'-वचन को ध्यान में रखते हुए प्रवर्तित सभी क्रियाएँ नि:शंक होकर करनी चाहिए। तत्त्वत: यह आचरणा मूल आगमों के आधार पर ही प्रवर्तित होती है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि उपधान तप आर्थिक, शारीरिक और धार्मिक-तीनों द्रष्टियों से हितकारी है। उपधान तप करने वाला, करवाने वाला एवं उपधान-तप की अनुमोदना करने वाला सभी के लिए यह एकांतत: लाभदायक है। इसके निमित्त होने वाला धनव्यय पूर्णत: सार्थक होता है तथा शरीर का श्रम पूरी तरह से सफल होता है। इससे तीर्थंकरों के आज्ञा की आराधना होती है, शास्त्र का बहुमान होता है और संसार तारक पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध आदि श्रुत की भक्ति होती है। महीनों तक प्रतिदिन आठ प्रहर का पौषध ग्रहण करने से मुनि जीवन की भाँति सर्वविरति की परिपालना होती है। पौषधव्रत में नियमित रूप से देववंदन और गुरूवंदन आदि की क्रिया होने से वीतरागदेव और निर्ग्रन्थ गुरूओं की भक्ति होती है। संघ का समागम होने से साधर्मिक भक्ति का लाभ मिलता है, धार्मिक-कार्य होते हैं और श्री तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा स्थापित धर्मतीर्थ की अनेक प्रकार से सेवा होती है। वीतराग देव द्वारा स्थापित धर्मतीर्थ की पुष्टि होने से सर्वक्षेत्रों और सर्वपात्रों की पुष्टि होती है, ज्ञान बढ़ता है, दर्शन बढ़ता है, चारित्र बढ़ता है, दान बढ़ता है, दया बढ़ती है, अहिंसा बढ़ती है, संयम बढ़ता है-इस प्रकार इस जगत् में जितनी सारभूत और हितकारी वस्तुएँ हैं, उन सभी की वृद्धि होती है। शास्त्र निर्दिष्ट इस तप अनुष्ठान की विधि को श्रद्धापूर्वक करने-करवाने से शासन, संघ और धर्म की महान् सेवा