SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन .323 जाता है। शरीर का अनावश्यक भाग, यथा- मेद और चरबी घट जाते हैं तथा भविष्य की अपेक्षा भी कई शारीरिक रोगों से मुक्ति मिल जाती है, अत: यह तप साधना शरीर की दृष्टि से अनन्य लाभदायी है। धार्मिक दृष्टि- आजकल अनेक लोग यह प्रश्न या आक्षेप करते हैं कि वर्तमान में उपधानवहन की जो प्रणाली है, वह शास्त्रोक्त नहीं है, क्योंकि किसी भी जिनागम में वर्तमान में प्रचलित विधि का उल्लेख नहीं मिलता है, अर्वाचीन आचार्यों को जैसा सही लगा, वैसी आराधना करवाने लगे। उपधान तप में प्रतिदिन बीस-बीस नवकारवाली गिनना, सौ लोगस्स का कायोत्सर्ग करना और सौ खमासमण देना आदि कईं क्रियाएँ आजकल करवाने लगे हैं, उनका उल्लेख किन शास्त्रों में हैं ? आचार्य कीर्तियशसूरिजी महाराज साहब की दृष्टि से ऐसे प्रश्न उठाने वालों को सबसे पहले तो शास्त्र वचन के प्रति श्रद्धा नहीं है और यदि शास्त्रवचन के प्रति श्रद्धा है, तो उन लोगों को यह समझना चाहिए कि जिनशासन में साधु और श्रावक की वर्तमान सामाचारी अर्थात आचरणयोग्य व्रत एवं क्रियाएँ, उपयोग में आने वाले उपकरणों तथा धर्म के निमित्त हो रही समस्त प्रवृत्तियाँ ‘जीतव्यवहार' के अनुसार चल रही है। स्थानांगसूत्र में पाँच प्रकार के व्यवहार बताए गए हैं-17 1. आगमव्यवहार 2. श्रुतव्यवहार 3. आज्ञाव्यवहार 4. धारणाव्यवहार और 5. जीतव्यवहार। इन पाँचों व्यवहारों में से वर्तमान में केवल पाँचवां 'जीतव्यवहार' ही विद्यमान है। आगमव्यवहार आदि का प्रचलन पूर्वधरों के काल में था। जीत अर्थात आचरणा और आचरणा का मतलब अशठ, भवभीरू और संविग्न गीतार्थों द्वारा आचरित प्रवृत्ति । आगम वचनों को ध्यान में रखकर, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पुरूषादि की योग्यता का विचार करके, संयम की वृद्धि करने वाला और अन्य संविग्न गीतार्थ मुनियों द्वारा मान्य किया गया प्रवर्त्तन आचरणा कहलाता है। इस आचरणा के आधार पर ही पंचमकाल के अंत तक प्रभु महावीर का शासन चलने वाला है। न्यायाचार्य महोपाध्याय श्री यशोविजयजी ने भाषास्तवन, जो कि 350 गाथाबद्ध है उसकी 14वीं ढाल में उक्त बात का समर्थन करते हुए कहा है
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy