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318... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... का जाप करना और सद्गुरू के सान्निध्य में रहकर विधिपूर्वक वाचना लेना आदि क्रियाएँ अपेक्षित होती हैं और उन कृत्यों का त्रियोगपूर्वक पालन करना उपधान कहलाता है।
__ मुख्य रूप से उपधान वहन के दिनों में सूत्र एवं अर्थ का अध्ययन तथा सूत्रार्थ का विधिवत् उपयोग किस प्रकार हो, इसका अभ्यास करवाया जाता है। उपधान तप की आवश्यकता क्यों? ___ संसारी आत्मा अनादिकाल से राग-द्वेषजन्य प्रवृत्तियाँ करने के कारण कर्मों से आवृत्त है। आत्मा के वास्तविक स्वरूप को प्रकट करने के लिए आवरण को हटाना अनिवार्य है। सम्यग्ज्ञान की आराधना और तदनुरूप क्रिया ही आत्म स्वरूप प्रकटीकरण एवं कर्म निवारण में सक्षम है। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति का आधार है-कर्मों का क्षयोपशम। वह क्षयोपशम तप व संयम द्वारा ही संभव है। तप एवं संयम से आत्मा निर्मल बनती है, क्षयोपशम प्रबल बनता है, बुद्धि सूक्ष्म होकर सूत्र और अर्थ के रहस्यों को ग्रहण करने योग्य बनती है, इसलिए उपधान तप करना आवश्यक है।
उपधान की आवश्यकता का दूसरा कारण यह है कि कोई भी क्रिया विधिपूर्वक करने पर ही सिद्ध होती है। जैसे-भोजन बनाने की सामग्री एवं बाह्य साधन होने पर भी निर्माण-विधि की जानकारी न हो, तो भोजन समुचित एवं स्वादिष्ट नहीं बन सकता, वैसे ही धार्मिक क्रियाएँ भी विधि विधान के बिना फलवती नहीं बनती हैं।
इस प्रायोगिक अनुष्ठान द्वारा आवश्यक क्रियाओं को विधिपूर्वक करने का शिक्षण दिया जाता है ताकि वे क्रियाएँ मोक्ष रूपी फल को प्रदान करने वाली बन सकें, इस दृष्टि से भी उपधान एक अत्यावश्यक विधान है।
उपधान की आवश्यकता का तीसरा कारण यह है कि इस तप- अनुष्ठान के माध्यम से सूत्रार्थ के प्रति बहुमान बढ़ता है, धार्मिक कृत्यों को सम्यक् विधिपूर्वक सम्पादित करने के संस्कार बनते हैं, जिनसे संसार के प्रति वैराग्य के अंकुर भी प्रस्फुटित हो सकते हैं। चूंकि इस समय का समग्र वातावरण त्यागवैराग्य, तप-संयम, ज्ञान-ध्यान आदि से अनुप्राणित होता है अतएव संसार की वासना और संयम की उपासना का महत्त्व समझ में आ जाता है।