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________________ उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...319 उपधान तप की मौलिकता विविध दृष्टियों से जैनागम साहित्य में कहा गया है कि आत्म साधना की प्रत्येक क्रियाएँ तथा क्रिया सहायक सूत्र योग्यता प्राप्त व्यक्ति को ही फलदायी और सिद्धिदायक बनते हैं। चौदह पूर्वो के साररूप नमस्कार महामंत्र एवं आवश्यक सूत्रों का अधिकार प्राप्त करने के लिए सद्गुरू की निश्रा में उपधान तप का वहन करना श्रावक जीवन का परम कर्तव्य है। श्रमणोपासक उपधान तप द्वारा श्रमण जीवन का परम आस्वादन प्राप्त कर सकता है। उपधान में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप प्रधान जीवन जीना होता है। जिस व्यक्ति के मोहनीयकर्म का क्षयोपशम एवं विशिष्ट पुण्योदय का प्रकटीकरण हुआ हो, वह पुण्यात्मा ही उपधान तप कर सकता है तथा उपधान तप करवाने के मनोरथ को भी पूर्ण कर सकता है। उपधान करने करवाने वाले भव्य जीव इस आराधना में त्रियोग से जुड़ जाते हैं। जिसके फलस्वरूप वे साधक एवं आयोजक दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय-कर्म का क्षयोपशम करते हुए सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र को उपलब्ध कर परम पद के भोक्ता बन सकते हैं। वर्तमान युग में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन-समाज में उपधान तप को वहन करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यह तप-प्रणाली अतिप्राचीन है। महानिशीथ जैसे प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रन्थ में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यह एक कष्टसाध्य अनुष्ठान है। इस अनुष्ठान को वहन करने-करवाने के लिए बहुत सी साधन सामग्रियों की जरूरत भी रहती है। मध्यकाल में कितने ही समय तक यह तप प्रवृत्ति अवरूद्ध-सी हो गई थी। पिछले 20-25 वर्षों से पुन: यह प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। इस तपोनुष्ठान में हजारों पुरूष, स्त्रियाँ, बालकबालिकाएँ, युवक- युवतियाँ, वृद्ध-वृद्धाएँ, सभी सोत्साह सम्मिलित होते हैं, किन्तु कुछ नास्तिक आत्माएँ तत्सम्बन्धी विरोध प्रकट करती हैं, अनावश्यक तर्क, शंकाएँ, सन्देह, आदि करती हैं। उनके निरर्थक वचनों का निराकरण करने हेतु रामचन्द्रसूरि समुदायवर्ती आचार्य सम्राट श्री कीर्तियशसूरीजी म.सा. द्वारा आलेखित कुछ बिन्दुओं को प्रस्तुत किया जा रहा है___आर्थिक दृष्टि- जो लोग उपधान तप से होने वाले विशिष्ट लाभों से अपरिचित हैं, वे इस प्रकार का आक्षेप करते हैं कि उपधान तप वहन करने वाले
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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