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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ... 317
आदि के चार प्रकारों का आलंबन लेने से सूत्र और अर्थ आत्मस्थ होते हैं तथा अन्तिम प्रकार द्वारा सूत्र एवं अर्थ का अन्य जीवों में विनियोग होता है। आत्मस्थ किए हुए सूत्र और अर्थ को धर्मकथा के माध्यम से ही जीवन्त रखा जा सकता है। इस प्रकार स्वाध्याय के पाँचों प्रकारों से सूत्र आत्मस्थ या समीपस्थ बनते हैं। इसका सार यह है कि ज्ञान स्वयं तप रूप है और तप से ज्ञान की उपलब्धि होती है।
समाहार रूप में कहा जा सकता है कि शास्त्रोक्त विधिपूर्वक सद्गुरू के सन्निकट रहते हुए आयंबिल आदि तप विशेष द्वारा नमस्कारमन्त्र आदि सूत्रों को धारण(ग्रहण) करना, उन सूत्रों की वाचना लेना उपधान है अथवा जो मोक्ष के समीप आत्मा को धारण करता है, वह उपधान है।
उपधान का सामान्य स्वरूप
उपधान एक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। इसे ज्ञान साधना की प्राथमिक कक्षा कहा जा सकता है। जिस प्रकार M. B.A. या M. B. B. S. प्राप्त करने के पहले विद्यार्थी को स्वमत Lower Classes का अध्ययन करना अनिवार्य है, उसी प्रकार श्रावक - जीवन की विशिष्ट योग्यता अर्जित करने के लिए उपधान रूपी प्रारम्भिक चरण सम्पन्न करना जरूरी है। उपधान वहन के बिना गृहस्थ सूत्र, अर्थ एवं उनके रहस्यों को जानने एवं आत्मसात् करने की योग्यता विकसित नहीं कर पाता है।
जिस प्रकार जैन मुनि के लिए आगम आदि सूत्रों को पढ़ने-पढ़ाने की योग्यता या अधिकार प्राप्त करने के लिए योगोद्वहन करना आवश्यक माना गया है, उसी प्रकार जैन श्रावकों के लिए प्रतिक्रमण आदि सूत्रों को पढ़ने-पढ़ाने की योग्यता समुपलब्ध करने हेतु उपधान करना अनिवार्य है।
जिस तरह कई प्रकार के मन्त्रों को सिद्ध करने के लिए उनकी विधि के अनुसार अमुक तपस्या करनी होती है, अमुक स्थिति में, अमुक स्थान में और अमुक आसन में बैठना होता है, अमुक संख्या में मंत्रों का एकाग्रचित्त होकर जाप करना तथा मनुष्यकृत उपसर्गों को सहन करना होता है और तब वह मंत्र सिद्ध होते हैं। उसी के बाद उन मंत्रों का यथायोग्य उपयोग किया जा सकता हैं, उसी प्रकार नमस्कार आदि सूत्रों का यथायोग्य फल प्राप्त करने के लिए अमुक तपस्या करना, अमुक स्थिति में रहना, अमुक संख्या में नमस्कार आदि मन्त्रों