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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...313 धान-धारण करना अर्थात परमात्मा एवं सद्गुरू के सान्निध्य को स्वीकार कर उनके समीप में सूत्र आदि धारण करना उपधान है।
• उपधान शब्द का प्राकृत रूप ‘उवहाण' है। 'उवहाण' का अर्थ करते हुए कहा गया है
उप-आत्मा निकट में जानो, कर्मों की हान पिछानो।
अपहाण अर्थ विज्ञानो, शिवसाधन सिद्धि निधानो।। आत्मा के समीप रहते हुए ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय करना अथवा जो क्रिया कर्मों का नाश कर आत्मदर्शन करा दे, वह उपधान है।
• सामान्य अर्थ के अनुसार सुयोग्य सद्गुरू के पास शास्त्रोक्त रीति से तपपूर्वक सूत्र और अर्थ का अध्ययन करना उपधान है। ... • उपधान का निरूक्तिपरक अर्थ करते हुए कहा गया है कि
"उपधीयन्ते-सुगुरू मुखान्नवकार मन्त्राणि सूत्राणि यथाविधि धार्यन्ते-गृह्यन्ते ये न तपसेति तत् उपधान तप इति व्याहियते"
सद्गुरू के सन्निकट रहते हुए तपपूर्वक उनके मुखारविन्द से नमस्कार मन्त्र आदि सूत्र जो यथाविधि धारण किए जाते हैं, ग्रहण किए जाते हैं, वह उपधान है।
• आचारांगनियुक्ति में उपधान शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है
"भावोपधानं ज्ञानादितपो वा वीरवर्द्धमानस्वामिना स्वतोऽनुष्ठितमतो ऽन्येनाऽपि मुमुक्षुणैतदनुष्ठेयमिति"
भाव उपधान ज्ञानादि तपरूप है। तीर्थंकर परमात्मा वर्धमानस्वामी ने भाव उपधान का आचरण किया था, अत: अन्य मुमुक्षुओं को भी भाव उपधान करना चाहिए।
• आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध का नौवाँ अध्ययन ‘उपधानश्रुत' नाम का ही है। इसमें परमात्मा महावीरस्वामी द्वारा साढ़े बारह वर्ष और पन्द्रह दिन अप्रमत्तदशा पूर्वक ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की जो कठोर साधना की गई, उसे उपधान तप कहा है। परमात्मा महावीर द्वारा आचरित यह उपधान, भाव उपधान था। उसका अनंतर फल केवलज्ञान और परंपरा फल निर्वाण की प्राप्ति है।
• आचारांगसूत्र की टीका में उपधान के दो भेद किए गए हैं: