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अध्याय
उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन
उपधान सम्यक् तपाराधना के साथ विशिष्ट क्रियाओं का अलौकिक उपक्रम है। यह एक आध्यात्मिक शिविर है, जिसमें श्रेष्ठ प्रक्रिया के द्वारा सत्संस्कारों का बीजारोपण किया जाता है। शरीर एवं उससे सम्बन्धित वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति हमारा जो ममत्व है तथा तज्जनित ममत्व के कारण हमारी जो मानसिक, वाचिक और कायिक दुष्प्रवृत्तियाँ होती हैं, उनके संशोधन का यह सफल उपाय है। ममत्व रूपी रोग के हरण की यह रामबाण औषधि है। इसके लिए शर्त यही है कि इसे ज्ञान और विवेक रूपी पथ्य का पालन करते हुए अपनाया जाए।
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सामान्यत: उपधान की आराधना तप पूर्वक होती है। इसमें तप, ज्ञान और चारित्र की मुख्यता रहती है। इस आराधना में प्रविष्ट व्यक्ति मुनि जीवन से सम्बन्धित कईं नियमों का पालन करता है जैसे - - स्नान नहीं करना, मंजन नहीं करना, गद्दे पर नहीं सोना, तकिए का उपयोग नहीं करना, तेल आदि नहीं लगाना, शरीर की विभूषा नहीं करना, अकारण पौषधशाला (उपाश्रय) से बाहर नहीं जाना, निष्प्रयोजन इधर-उधर नहीं देखना, मौनव्रत में रहना, समभाव की साधना करना, विकथा आदि से दूर रहना, स्वाध्याय - ध्यान आदि में लीन रहना, वस्त्र - पात्र - संथारा आदि आवश्यक वस्तुओं की सम्यक् प्रतिलेखना करना, सदा अप्रमत्त रहना आदि । इस प्रकार उपधान तप की आराधना मुनिचर्या के समकक्ष होती है।
जो उपधानवाही निर्धारित नियमों का अनुपालन नहीं कर पाते हैं, उनके लिए प्रायश्चित्त-विधान की व्यवस्था है अतः उपधान तप का अनुष्ठान सजगता एवं सतर्कतापूर्वक किया जाना चाहिए।
उपधान शब्द का अर्थ विन्यास
जैन ग्रन्थों में उपधान के निम्नलिखित अर्थ प्रतिपादित हैं
• उप + धान इन दो पदों के योग से उपधान शब्द निष्पन्न है । उप- समीप,