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290... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
एकासना आदि तप किया हुआ हो, तो वह कंदोरा - धोती की प्रतिलेखना करने के बाद उपधि-वस्त्रों की प्रतिलेखना करें। फिर अकालवेला न आ जाए, तब तक स्वाध्याय करें। यह सामाचारी नियम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की सभी परम्पराओं में प्रचलित है।
प्रायः
यह विचारणीय है कि उपवास किए हुए पौषधवाही और एकासना आदि किए हुए पौषधवाही के लिए अंग एवं उपधि प्रतिलेखना के क्रम में अन्तर क्यों रखा गया है ? अर्थात उपवासी पौषधव्रती प्रथम उपधि की प्रतिलेखना करें और बाद में अंगस्थित धोती की प्रतिलेखना करें, जबकि एकासना किया हुआ पौषधव्रती प्रथम अंगस्थित वस्त्रों की प्रतिलेखना करें और बाद में उपधि की प्रतिलेखना करें-इसके पीछे क्या प्रयोजन हो सकता है? विद्वज्जनों के लिए अन्वेषणीय है।
तपागच्छ परम्परा में सन्ध्याकालीनप्रतिलेखन - विधि पूर्ववत् ही की जाती है। विशेष इतना है कि 1. इनमें 'अंगप्रतिलेखन' करने का आदेश नहीं लेते हैं 2. सज्झाय के स्थान पर 'मन्नह जिणाणं' का पाठ बोलते हैं 3. इस क्रिया के अन्त में दुबारा भूमि प्रमार्जन (काजा निकालने की क्रिया) और ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करते हैं। 53
अचलगच्छ परम्परा में प्रस्तुत विधि का यह स्वरूप है
1. प्रथम एक खमासमणपूर्वक ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करते हैं 2. फिर आदेश लेकर क्रमशः उत्तरासंग का एक पल्ला, उत्तरासंग, चरवला, कंदोरा, धोती, कटासन-इन पाँच की प्रतिलेखना करते हैं 3. पुनः ईर्यापथिक- प्रतिक्रमण करके स्थापनाचार्य की प्रतिलेखना करते हैं। फिर पूर्वनिर्दिष्ट नियमानुसार भोजन - पानी आदि का प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं। यदि किसी को बाद में पानी पीना हो, तो उत्तरासंग के पल्ले पर गाँठ बांधते हैं और जब पानी पीना हो, तब गाँठ खोलकर तीन बार नमस्कारमन्त्र गिनकर पानी पीते हैं। 4. फिर उपधि की प्रतिलेखना करते हैं और सज्झाय में 'धम्मोमंगल' का पाठ बोलते हैं। 54
पायच्छंदगच्छ परम्परा में दो खमासमणपूर्वक प्रतिलेखन ( पडिलेहण) करने का आदेश लेते हैं, दो खमासमणपूर्वक अंग प्रतिलेखन का आदेश लेते