SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 282... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... और जो भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे अधिकांश स्वरूप, प्रकार आदि का ही वर्णन करते हैं। इस परम्परा में आज भी पौषधविधि अवश्य प्रचलित होनी चाहिए, किन्तु उसका स्वरूप क्या है? इस विषय में कुछ कहना असंभव है। दिगम्बर-मुनियों के साथ हुई मौखिक-चर्चा के आधार पर भी इस विषय में मुझे स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है और न ही तत्सम्बन्धी कोई ग्रन्थ उपलब्ध हो पाया है। पौषध विधि से सम्बन्धित अन्य विधि-विधान जिस दिन पौषधव्रत ग्रहण करते हैं, उस दिन कुछ अन्य विधि-विधान भी सम्पन्न किए जाते हैं। ये विधान श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा की सभी शाखाओं में लगभग प्रचलित हैं। प्रातःकालीन प्रतिलेखना विधि पौषधव्रत लेने के पश्चात पौषधग्राही वस्त्र, उपधि, वसति आदि की प्रतिलेखना करता है। यह वर्णन पूर्व में कर चुके हैं। रात्रिकमुखवस्त्रिका प्रतिलेखन विधि खरतरगच्छ परम्परा में यह विधि प्रात:कालीन प्रतिलेखना-विधि पूर्ण होने के बाद करते हैं। तपागच्छ, पायच्छंदगच्छ एवं त्रिस्तुतिक परम्परा में 'उग्घाड़ापौरूषी' के बाद यह विधि करते हैं। अचलगच्छ में इस विधि का सूचन नहीं है। शेष परम्पराओं में भी यह विधि प्रचलित नहीं है। प्रमुखत: यह विधि गुरू मुख द्वारा प्रत्याख्यान ग्रहण करने से सम्बन्धित है। श्वेताम्बरमूर्तिपूजक परम्परानुसार जिस दिन जो तप आदि करना हो, उसका प्रत्याख्यान रात्रिक प्रतिक्रमण करते समय कर लेना चाहिए, किन्तु उस दिन के तप का प्रत्याख्यान गुरू मुख से करना जरूरी होता है अत: जिस पौषधव्रती ने गुरू महाराज के साथ प्रतिक्रमण न किया हो, यह विधि उसके लिए कही गई है तथा जिसने गुरू भगवन्त के साथ प्रतिक्रमण किया हो और उनके मुख से तप का प्रत्याख्यान कर लिया हो, उसके लिए यह विधि करना जरूरी नहीं है। राईय मुहपत्ति पडिलेहण की विधि यह है• सर्वप्रथम एक खमासमणपूर्वक ईर्यापथ का प्रतिक्रमण करें। • फिर एक
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy