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पौषधव्रत विधि का सामयिक अध्ययन ...281 पच्चक्खामि, जाव अहोरत्तं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा तस्स भंते! पडिक्कमामि, निन्दामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।
भावार्थ- अन्न, पानी, पकवान, मुखवास- इन चतुर्विध आहारों का 'अपि' शब्द से सूंघने आदि के योग्य पदार्थों का, मैथुन सेवन करने का, पुष्पों एवं सुवर्ण की माला आदि आभूषणों का, हीरा, पन्ना, मोती, रत्न, आदि जवाहरात का, तेल-चन्दन आदि के विलेपन का, मूसल, खड्ग, चक्र, आदि शस्त्रों का तथा मन-वचन-काया के पापमय व्यापार का प्रथम व्रत के समान दो करण तीन योग से प्रत्याख्यान करता हूँ।
इस आम्नाय में जो साधक तिविहार उपवास पूर्वक चार प्रहर के लिए पौषध करते हैं, वह देश पौषध कहलाता है। देशपौषध ग्रहण करने का दंडक निम्न है। इसे देशावगासिकदंडक भी कहते हैं
दसवां देशावगासिकव्रत प्रभात से प्रारम्भ कर पूर्वादिक छहों दिशा में जितनी भूमि खुली राखी, उस उपरान्त स्वइच्छा से काया से जाकर पाँच आस्रव-सेवन का पच्चक्खाण, जाव अहोरत्त पज्जुवासामि। दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा जितनी भूमिका खुली राखी, उसमें जिन द्रव्यादिक की मर्यादा की उस उपरान्त उपभोग परिभोग अर्थे भोगने का पच्चक्खाण। जाव अहोरत्तं, एगविहं तिविहेणं न करेमि मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते। पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
उसके बाद योगमुद्रा (चैत्यवन्दनमुद्रा) में णमुत्थुणसूत्र बोलें। फिर जो पौषधव्रत में न हो, ऐसे किसी गृहस्थ से रजोहरण, गुच्छक, लघुनीति-पात्र आदि के उपयोग करने की आज्ञा लें। फिर स्वाध्याय में रत हो जाएं।42
तेरापन्थी परम्परा पौषधग्रहणविधि लगभग स्थानक-परम्परा के समान ही है।
दिगम्बर परम्परा पौषधव्रत को स्पष्टतः स्वीकार करती हैं और इस विषय का निरूपण करने वाले अनेकों ग्रन्थ उनकी परम्परा में उपलब्ध भी हैं, किन्तु 'पौषधविधि' की चर्चा करने वाला कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ देखने में नहीं आया है