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280... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... निकालते हैं और पुन: ईर्यापथप्रतिक्रमण करते हैं 10. फिर सज्झाय का आदेश लेकर 'अरिहंतामंगलं'37 की सज्झाय बोलते हैं। फिर अविधि-आशातना के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' देते हैं।38
पायच्छंदगच्छ की परम्परा में पौषधग्रहणविधि का स्वरूप प्रायः तपागच्छ-आम्नाय के समान ही है। इसमें विशेष यह है कि 1. 'पडिलेहणं संदिसावेमि' 'पडिलेहणं करेमि'-ये दो आदेश लेते हैं 2. इसी प्रकार 'अंगपडिलेहण' के दो आदेश लेते हैं 3. पौषध ग्रहण करने के बाद ‘बहुवेलं' का आदेश लेते हैं। फिर प्रतिलेखना विधि प्रारम्भ करते हैं 4. 'बइसणं' एवं 'सज्झाय' का आदेश अन्त में लेते हैं 5. सज्झाय के स्थान पर 'अरिहंतदेवों39 की पाँच गाथा बोलते हैं 6. सज्झाय पाठ सुनने के बाद गुरू को द्वादशावर्त्तवन्दन कर प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं। फिर देववंदन आदि करते हैं।40
त्रिस्तुतिक परम्परा में पौषधग्रहणविधि एवं प्रातः प्रतिलेखनविधि लगभग तपागच्छ-परम्परा के समान की जाती है। विशेष अन्तर यह है कि 'पडिलेहण' का आदेश लेने के बाद क्रमश: मुखवस्त्रिका, चरवला, दंडासन, धोती, उत्तरासन और आसन-इन छ: वस्तुओं की प्रतिलेखना करते हैं।41
स्थानक परम्परा में पौषधग्रहणविधि इस प्रकार कही गई है-जिस दिन पौषधव्रत करना हो, उससे पूर्व दिन में एकासना करें। अहोरात्रि ब्रह्मचर्य का पालन करें। दूसरे दिन पौषधशाला या एकान्त पवित्र स्थान में जाकर एक मुहर्त रात्रि शेष रहने पर रात्रिक प्रतिक्रमण करें। फिर आसन बिछाकर 'इरियावहिया' एवं 'तस्सउत्तरी' का पाठ बोलकर इरियावहिया का कायोत्सर्ग करें। नमस्कारमन्त्र के उच्चारण के साथ कायोत्सर्ग पूर्णकर लोगस्ससूत्र बोलें। फिर साधु-साध्वी हों, तो उनके मुख से पौषधदंडक उच्चारित करवाएं, अन्यथा पूर्व या उत्तरदिशा की ओर मुख करके और पंचपरमेष्ठी को वन्दना करके निम्न पाठ से स्वयं ही पौषधव्रत ग्रहण करें। चौविहार उपवासपूर्वक आठ प्रहर का पौषध करने वाले गृहस्थ के लिए पौषधग्रहण का यह पाठ है
ग्यारहवां पडिपुण्ण पौषधव्रत, चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं, पच्चक्खामि, अबंभं पच्चक्खामि, मालावण्णगविलेवणं पच्चक्खामि, मणिसुवण्णं पच्चक्खामि, सत्थमुसलादिसावज्जं जोगं