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पौषधव्रत विधि का सामयिक अध्ययन... 275
जहाँ तक निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका साहित्य का प्रश्न है, वहाँ हमें उपासकदशासूत्र की टीका में 'पौषधोपवास' का स्वरूप मात्र दृष्टिगत होता है। 28 आवश्यकचूर्णि आदि ग्रन्थों में भी पौषधव्रत का विवेचन है, किन्तु व्रतग्रहण सम्बन्धी विधि-विधान को लेकर कोई निर्देश नहीं है।
यदि हम आगमयुग के अनन्तर मध्यकालीन (छठवीं से बारहवीं शती) ग्रन्थों का अध्ययन करें, तो वहाँ पौषधव्रत के प्रकार एवं स्वरूप आदि की चर्चा करने वाले कईं ग्रन्थ देखें जा सकते हैं, परन्तु उनमें भी विधि-विधान के कोई निर्देश प्राप्त नहीं हैं। हाँ, इतना उल्लेख अवश्य किया गया है कि यह व्रतानुष्ठान विधिपूर्वक करना चाहिए, किन्तु इसकी विधि क्या है ? इस बारे में 11 वीं शती तक के सभी ग्रन्थ मौन हैं। यद्यपि हरिभद्रसूरिरचित श्रावकधर्मप्रकरण, श्रावकप्रज्ञप्ति, धर्मबिन्दुप्रकरण, पंचाशक प्रकरण आदि, हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्र, दिगम्बर- परम्परा के विविध श्रावकाचार आदि श्रावकधर्म का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थ हैं तथा इनमें श्रावक के विविध कृत्यों, चर्याओं एवं व्रतों का सविस्तार वर्णन किया गया है यद्यपि इनके विधि-विधान के सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं है।
इससे फलित होता है कि जैन धर्म में 11 वीं शती तक पौषधवत सम्बन्धी विधि-विधान प्रतिष्ठित नहीं हुए थे। जब हम आचार्य हरिभद्रसूरि के परवर्ती ग्रन्थों को देखते हैं, तो वहाँ इस विधि की सर्वप्रथम चर्चा जिनवल्लभसूरिकृत पौषधविधिप्रकरण में पढ़ने को मिलती है। उसके बाद जैन परम्परा के विविध विधि-विधानों का प्रतिपादन करने वाले तिलकाचार्यसामाचारी, सुबोधासामाचारी, विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर आदि ग्रन्थों में यह स्वरूप दिखाई देता है। वर्तमान में पौषधव्रत से सम्बन्धित जो भी विधि-विधान किए जाते हैं, वे इन्हीं ग्रन्थों के आधार से संकलित किए गए हैं। उनमें भी विधिमार्गप्रपा और आचारदिनकर के विधि-विधान अधिक मान्य रहे हैं। ये ग्रन्थ खरतरगच्छ के महान् आचार्यों द्वारा रचित हैं। अब प्रसंगानुसार पौषधविधि कहते हैं
पौषधग्रहण विधि का प्रचलित स्वरूप
खरतरगच्छ परम्परानुसार जिस दिन श्रावक या श्राविका को पौषधव्रत ग्रहण करना हो, उस दिन वह समस्त प्रकार के पापमय व्यापारों से निवृत्त होकर