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274... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
या जमीन पर शयन करना। इन्हें उपोसथशील कहा गया है। 23 महावीर की परम्परा में भोजनसहित जो पौषध किया जाता है, वह देशावगासिकव्रत कहलाता है। ईसाई एवं यहूदियों में मूसा के 'दस आदेशों' या ‘धर्म आज्ञाओं’ में एक आज्ञा यह भी है कि सप्ताह में एक दिवस विश्राम लेकर पवित्र आचरण करना। इस नियम को उपोसथ या पौषध का ही एक रूप मान सकते हैं, भले ही वह आज लुप्त हो गया हो | 24 इस तरह पौषधव्रत एक आध्यात्मिक एवं प्राचीनतम साधना है।
जहाँ तक प्राचीन जैन आगमों का प्रश्न है, उनमें हमें पौषधवत सम्बन्धी किसी विधि-विधान के उल्लेख नहीं मिलते हैं। कालक्रम की दृष्टि से देखा जाए, तो स्थानांगसूत्र में गृहस्थ श्रावक को भारवाहक श्रमिक की उपमा देकर चार प्रकार के भारवाहकों में तीसरे प्रकार के भारवाहक श्रमिक को पौषधोपवासव्रत के समान बताया है, इतनी चर्चा मात्र मिलती है। 25 भगवतीसूत्र में इस व्रत को 'पौषधोपवास' के नाम से निर्दिष्ट किया है | 26
उपासकदशासूत्र में मात्र इतना उल्लेख मिलता है कि आनन्द आदि श्रावकों ने पौषधव्रत अंगीकार किया तथा कामदेव, चूलनीपिता, सुरादेव, शकडालपुत्र आदि छः उपासकों के लिए यह कहा गया है कि वे पौषधशाला में साधनारत थे, उन्हें विचलित करने के लिए देव परीक्षा लेता है, मृत्यु का भय दिखाता है, अन्तत: उनमें से चार श्रावक विचलित होकर पुनः संभल जाते हैं एवं दो उपासक अडिग रहते हैं। साथ ही पौषधवत सम्बन्धी पाँच अतिचारों का उल्लेख प्राप्त होता है। जैसे
1. पौषधयोग्य स्थान आदि का भली प्रकार से निरीक्षण नहीं करना । 2. पौषधयोग्य शय्या आदि का सम्यक् प्रमार्जन नहीं करना ।
3. मल मूत्र त्यागने योग्य स्थान का निरीक्षण नहीं करना ।
4. मल-मूत्र की भूमि का प्रमार्जन किए बिना ही उसका उपयोग करना। 5. पौषधोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं करना | 27
इस वर्णन से सूचित होता है कि आगम युग में पौषधव्रत ग्रहण करने की एक सुनियोजित विधि का अभाव था अथवा तत्कालीन समाज में इसकी पर्याप्त जानकारी होने के कारण इसे लिपिबद्ध करने की आवश्यकता महसूस नहीं की गई होगी।