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272... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... पौषधोपवासव्रत-ग्रहण के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए उल्लेख किया है कि पौषधव्रतग्राही श्रावक सर्वारम्भों का त्याग कर, देहादि के प्रति ममत्वरहित होकर प्रथम दिन के आधे भाग से उपवास ग्रहण करें। फिर एकान्त वसति में जाकर उस दिन को और दूसरे दिन को धर्मध्यान में व्यतीत करें। तीसरे दिन आवश्यक क्रियाकलाप कर प्रासुक द्रव्यों से वीतराग की उपासना करते हुए तृतीय दिन का आधा भाग व्यतीत करें। इस प्रकार सोलह प्रहर तक समस्त सावध-क्रियाओं एवं व्यापारों का त्याग करता हुआ पाँच आस्रवद्वारों का भी सेवन नहीं करें। संभवत: यह विधि दिगम्बर-परम्परा में प्रचलित है।
अमोलकऋषिजी ने इस विषय में यह लिखा है कि चक्रवर्ती पुरूष अपने लौकिक कार्यों को सिद्ध करने के लिए द्रव्य तप और द्रव्यपौषध करते हैं। पौषधव्रत के साथ तेरह तेलों की तपस्यापूर्वक षटखण्ड के अधिपति बन जाते हैं। वासुदेव आदि भी पौषधसहित एक तेला करके देवों के द्वारा वांछित कार्य सिद्ध करते हैं।15
इस विवरण से ज्ञात होता है कि पौषधव्रत की मर्यादा आठ प्रहर या सोलह प्रहर से अधिक भी हो सकती है। इसे उत्कृष्ट अवधि कहा जा सकता है तथा जघन्य अवधि कम से कम चार या पाँच प्रहर होना चाहिए, यह सिद्ध होता है। पौषध किन तिथियों में करें?
उपासकदशाटीका में द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी एवं चतुर्दशी को पर्व तिथि माना हैं।16 रत्नकरण्डकश्रावकाचार17, कार्तिकेयानुप्रेक्षा18 और श्रावकप्रज्ञप्तिटीका19 में अष्टमी एवं चतुर्दशी को पर्व तिथि कहा है। योगशास्त्र20 व तत्त्वार्थभाष्य21 में अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा एवं अमावस्या को पर्व तिथि स्वीकार किया है। इन तिथियों के दिनों में पौषधव्रत का विशेष रूप से पालन करना चाहिए। पौषधव्रत के लिए आवश्यक उपकरण
__ पौषधव्रत धारण करने वाले गृहस्थ के लिए निम्न उपकरण आवश्यक माने गए हैं
1. चरवला 2. मुखवस्त्रिका 3. कटासन 4. धोती 5. सूत का कंदोरा 6. उत्तरासन (खेस) 7. लघुनीति के समय पहनकर जाने वाला वस्त्र 8. श्लेष्म