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पौषधव्रत विधि का सामयिक अध्ययन ... 271
पौषधव्रत हेतु शुभदिन का विचार
जिस प्रकार सम्यक्त्वव्रत, बारहव्रत, दीक्षाव्रत, उपस्थापना आदि स्वीकार करने के लिए शुभदिन आदि का होना अत्यन्त आवश्यक माना गया है, वैसा नियम पौषधव्रत के विषय में नहीं है।
इस सम्बन्ध में सामान्य रूप से यह निर्देश प्राप्त होता है कि पौषध की आराधना पर्वदिनों में करना चाहिए और इस व्रत को प्रातः काल में ग्रहण करना चाहिए। प्रभातकाल में भी यह व्रत सूर्योदय के पूर्व ग्रहण करना चाहिए या सूर्योदय के बाद इस विषय में कोई प्रामाणिक आधार प्राप्त नहीं होता है। तत्त्वतः हाथ की रेखाएँ स्पष्ट रूप से दिखने लग जाएं, उस समय से लेकर दिन के एक प्रहर तक भी यह व्रत ग्रहण किया जा सकता है।
जैन ग्रन्थों में इस व्रत का काल आठ प्रहर माना गया है। इस अपेक्षा से भी कह सकते हैं कि पौषधवत किस समय स्वीकार करना चाहिए? इसका निश्चित काल अवर्णित है। पौषधव्रत का पालन कितनी अवधि तक के लिए किया जाना चाहिए, यही एकमात्र सूचन देखने को मिलता है, किन्तु इतना नियम अवश्य है और देखा भी जाता है कि जो साधक आठ प्रहर का पौषधव्रत लेने वाला हो, वह प्रथम दिन जिस समय पर पौषध ग्रहण करे दूसरे दिन उसी समय पर पौषध पूर्ण करना चाहिए। उपवास की दृष्टि से देखें, तो सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक इस व्रत का पालन करना चाहिए। परम्परा से इतना अवश्य देखा जाता है कि प्रातः काल में पौषध लेने वाले साधक अपनी सुविधानुसार पाँच बजे से लेकर नौ बजे तक में ग्रहण कर लेते हैं और सायंकाल को पौषध लेने वाले भाई-बहिन सूर्यास्त होने से एक प्रहर पूर्व भी व्रत ग्रहण कर सकते हैं। उत्सर्गतः पौषधव्रत का ग्रहण आठ प्रहर के लिए ही होना चाहिए, किन्तु वर्तमान में पाँच प्रहर, चार प्रहर और आठ प्रहर तीनों प्रकार की परम्पराएँ प्रवर्तित है। यह परिवर्तन काल प्रभाव से आया है।
सारतत्त्व यह है कि पौषधव्रत प्रभात काल में आठ प्रहर की अपेक्षा से ग्रहण किया जाना चाहिए, यही शास्त्रीय विधि-नियम है।
आचार्य देवेन्द्रमुनि ने 14 लिखा है कि जो पौषध आठ प्रहर के लिए ग्रहण किया जाता है, वह प्रतिपूर्ण पौषध है। दिगम्बराचार्य अमृतचन्द्र ने