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________________ 270... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... 11. अप्रमार्जित या अप्रतिलेखित भूमि पर मल-मूत्र आदि परिष्ठापित करना। 12. निन्दा, विकथा और हंसी-मजाक करना। 13. सांसारिक बातचीत करना। 14. स्वयं डरना या दूसरों को डराना। 15. कलह करना। 16. मुखवस्त्रिका का उपयोग किए बिना अयतनापूर्वक बोलना। 17. स्त्री या पुरूष के अंगोपांग निहारना। 18. शरीर को अकारण हिलाना-डुलाना अथवा सांसारिक संबंधियों को काका, मामा आदि के नाम से सम्बोधित करना।13 __सात से अठारह तक के बारह दोष पौषध लेने के बाद लगते हैं। पौषध के इन अठारह दोषों का परिहार करके शुद्ध पौषध करना चाहिए। यदि अठारह दोषों का ऐतिहासिक या तुलनापरक-दृष्टि से विचार करें, तो कहा जा सकता है कि इन दोषों की चर्चा मात्र अर्वाचीन संकलित कृतियों में प्राप्त होती है। जैनागमों में पौषधव्रत में लगने वाले दोषों के लिए पाँच अतिचार कहे गए हैं। पौषधव्रतधारी एवं पौषधव्रतप्रदाता की योग्यताएँ। जैनाचार्यों ने सम्यक्त्वव्रत, बारहव्रत आदि धारण करने वाले साधकों में कुछ योग्यताओं का होना आवश्यक माना है। उसी तरह पौषधव्रती एवं पौषध प्रदाता के लिए भी किंचित् योग्यताएँ अपेक्षित हैं। __यदि इस सम्बन्ध में जैन-साहित्य का अवलोकन करें, कि पौषधव्रतग्राही को किन गुणों से युक्त होना चाहिए? तो यह वर्णन प्राचीनअर्वाचीन किसी भी ग्रन्थ में लगभग नहीं है। संभवत: इतना कह सकते हैं कि बारहव्रत ग्रहण किया हुआ श्रावक ही अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वदिनों में पौषधव्रत स्वीकार कर सकता है, अत: बारहव्रतधारी श्रावक के लिए जिन योग्यताओं का होना अपेक्षित माना गया है, वे ही योग्यताएँ पौषधव्रतग्राही श्रावक में भी होनी चाहिए। इसी प्रकार पौषधव्रत प्रदाता गुरू भी उन योग्यताओं से सम्पन्न होने चाहिए, जो सम्यक्त्वव्रत आदि का आरोपण करवाने वाले गुरू के लिए निर्दिष्ट की गई हैं।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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