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सामायिक व्रतारोपण विधि का प्रयोगात्मक अनुसंधान ...237 शताब्दी तक के ग्रन्थों में ही यह विधि वर्णित है। उस काल में छ: मासिक सामायिक विधि का प्रचलन किन स्थितियों में हुआ, यह कहना असंभव है। वर्तमान परम्परा में यह विधि प्रचलित नहीं है। अत: कहा जा सकता है कि इस विधि का अस्तित्व 12वीं से 16वीं शती के बीच ही रहा होगा।
संभवतया बौद्ध-धर्म में यह परम्परा रही है कि जब व्यक्ति 12 वर्ष का हो जाए, उसके बाद एक वर्ष के लिए संन्यास लेना जरूरी है। वही परम्परा जैन धर्म में भी रही होगी कि जो जैन श्रावक संयमव्रत (सर्वविरतिचारित्र) अंगीकार करना नहीं चाहता है, किन्तु संयम का आस्वादन करना चाहता है, वह छ: मासिक सामायिकव्रत को अवश्यमेव स्वीकार करें। नियमत: इस व्रत का आरोपण बारहव्रतधारी श्रावक के लिए ही किया जाता है अत: यह व्रतारोपण सर्वविरतिचारित्र धर्म (साधु धर्म) की पूर्व भूमिका से सम्बन्धित प्रतीत होता है।
समष्टि रूप में कहा जा सकता है कि भले ही यह व्रतारोपण संस्कार वर्तमान परम्परा में विच्छिन्न हो गया हो, परन्तु श्रावक को विशिष्टतर भूमिका में उपस्थित करता है और व्रतग्राही को क्रमशः सर्वविरतिचारित्र धर्म की ओर अग्रसर करने में प्रबल निमित्तभूत बनता है।
यदि सामायिकग्रहण विधि की अपेक्षा ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाए, तो जहाँ तक प्राचीन आगम ग्रन्थों का सवाल है, उनमें सूत्रकृतांगसूत्र, भगवतीसूत्र, उपासकदशासूत्र, अंतकृतदशासूत्र, अणुत्तरोपपातिकसूत्र और विपाकसूत्र में सामायिकव्रत स्वीकार किया, सामायिक(आचारांग) आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, सात शिक्षाव्रतों को अंगीकार किया इत्यादि चर्चाएँ तो उपलब्ध होती है, किन्तु विधि-विधान का किंचित् निर्देश भी दृष्टिगत नहीं होता है। ___ भगवतीसूत्र में वर्णन आता है कि भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के शिष्य वैश्यपुत्र कालास नामक अणगार ने भगवान् महावीर से कहा-“स्थविर सामायिक को नहीं जानते, सामायिक का अर्थ नहीं जानते।" तब भगवान ने उसे कहा-"हम सामायिक को जानते हैं, सामायिक का अर्थ जानते हैं।" कालास अणगार द्वारा पुनः प्रश्न करने पर प्रभु महावीर ने कहा-“आत्मा हमारी सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है।''44